रेगिस्तान के एक राजकुमार और दासी बाघा भारमली की अमर प्रेम कथा, रूठी रानी की कहानी

राजस्थान से में प्रेम कहानियों की एक लंबी परंपरा रही जिसमें जलाल-बूबना, महेंद्र मूमल, सोरठ-बीजा आदि उल्लेखनीय है उसी कड़ी में बाघा भारमली (Bagha Bharmali) की कहानी प्रसिद्ध हुई।कहानी कुछ यूं शुरू होती है कि जोधपुर के शक्तिशाली शासक मालदेव का विवाह जैसलमेर दरबार लूणकरण की पुत्री उमा दे से होना तय हुआ।दरबार ने भारमली को दासी के रूप में उमा दे के साथ भेजा।

शादी के ठीक बाद की पहली रात में जब उमा दे श्रृंगार में ज्यादा समय ले लिया तो भारमली को बुलाया दिया कि वह उमा दे को आने को कहे, बुलावे पर भारमली राजा के पास आती है तो और मालदेव उसी पर मोहित हो गया।जब उमा दे सजधज कर शयनकक्ष में आयी तो मालदेव के साथ भारमली को पाया, और वह वहाँ से चली गयी, इतिहास में यही उमा दे ‘रूठी राणी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।

इस प्रकरण का जब उमा दे की माता जो कोटडा़ की थीं, और लूणकरण को पता चला तो उमा दे की मां ने अपने भाई कोटडा़ स्वामी बाघजी को भारमली को लाने को भेजा।बाघजी वहां जाता है और वह भी मालदेव की तरह मोहित हुए बिना नहीं रह पाता और उसे चुपके से उठाकर कोटडा़ ले आते हैं।इस बात का जब मालदेव को पता चलता है तो बहुत क्रोधित हो उठता है।

भारमली के बिना उसको चैन नहीं मिलता, बाघजी से भारमली को छीनना भी आसान नहीं था।तब मालदेव ने अपने चारण राजकवि आसाणंद(आसोजी) बारहठ को यह कहकर भेजा कि आप कैसे ही करके भारमली को ले आयें, बाघजी कविता रसिक व्यक्ति है, आप प्रयत्न करिए।राजा का संदेश पाकर आसाजी कोटडा चले गए चारण राजपूतों का आपस में गजब का संबंध होता था।उन्होंने आव भगत की।बैठाया।मेहमाननवाजी की और कुछ दिन आसाजी जी वहां ठहरे।आसो जी और कोटडा नरेश के बीच में अच्छी मित्रता हो गई और जब उन्होंने भारमल और बाघा का प्रेम देखा तो उनकी कवि मन से एक दूहा निकल पड़ा

“जंह गिरवर तंह मोरिया, जंह सरवर तंह हंस | जंह बाघा तंह भारमली ,जंह दारु तंह मंस |

कुछ बरस बाद बाघजी की मृत्यु हो गयी और भारमली उनके साथ स’ती हो गयी। आशा जी को अपने मित्र की बहुत याद आने लगी उनका जीवन उनकी मित्र के बिना सूना सा होने लगा था तब उनके मन में एक दोहा आया –

“बाघै बिन कोटडौ़ लागै एहडौ़ह जानी घरै सिधाविया, जांणै माढंवड़ोह”

आसाजी ने फिर अनेक दोहे बाघजी और भारमली की स्मृति में रचे, वे वाकई पठनीय है।

अब एक नया किस्सा यहाँ जुड़ता है।अमरकोट के सोढा़ राणा ने सुना कि एक ऐसा कवि है जो अपने मित्र को नहीं भूल पा रहा, उसकी याद में पागल हुआ फिर रहा। राणा सहाब ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया और ये सोचकर कि मैं उन्हें इतना व्यस्त रखूँगा कि वे अपने साथी को भूल जायेंगे।आसोजी पहुंच गये।राणा सहाब ने एक दिन बारहठ जी का इम्तिहान लेने की सोची। राणा साहब ने आसाजी को कहा कि आपका मित्र कोटडा नरेश स्मृति शेष बाघ जी मेरा दुश्म’न है आप एक रात यदि उसका नाम नहीं लेंगे तो मैं आपको चार रातों के चार लाख रुपये आपको भेंट करूंगा।

आसोजी के पुत्र भी वहीं थे उन्होंने अपने पिता से कहा कि यह शर्त स्वीकार कर लीजिए आपके ₹400000 से मैं अपनी जीवन काट लूंगा।क्यों मना कर रहे हैं? अपने पुत्र की इच्छा रखते हुए उन्होंने एक रात अपने मित्र का नाम नहीं लेने का सोचा लेकिन रात के तीसरे पहर में उनको याद आने लगी।बाघा की याद की शूले उनको चुभने लगी और उन्होंने दोहा कहा,सिपाही जो वहां पर प्रहरी था उसने सुन लिया।

दोहा कुछ यूँ था – “बाघा आव वलैह, धर कोटडे़ तूं धणी जासी फूल झडे़ह, वास न जासी वाघजी” और

इस प्रकार दोहों की एक लंबी फेहरिस्त चली।और राणा सहाब को अपना धन आप अपने पास रखें, मैं अपने मित्र को नहीं भूल सकता।और उस ज़माने में चार लाख रुपये का लालच बाघजी ने ठुकरा दिया।और

ये दोहा कहा- “चींघण चाल वियांह, खीरा बाळ खंखेरिया राणा राख यथांह, वीसरसूं न वाघ नैं” भावार्थ कुछ यूं है कि – “चींघण (दा’ह संस्कार के समय क’पाल तोड़ने वाली लकड़ी) से जब क’पाल क्रिया कर दी जायेगी और अंगारों में मुझे ज’ला दिया जायेगा तब भी मैं प्रिय बाघे को नहीं भूल सकता, इसलिए हे राणा अपने धन को अपने पास रखो!

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