घर में 4 आत्महत्याओं ने तोड़ा मनोबल, बूढ़े मा-बाप के आंसू पोंछने की ठानी…मेहनत से गिरधर बने ग्राम विकास अधिकारी  

प्रतिभाएं संसाधनों की मोहताज नहीं होती. सुविधाओं के अभाव में भी मेहनत करने वाले मंजिल को पा जाते है। कुछ ऐसी ही कहानी है गिरधर सिंह उंडखा की जो राजस्थान के पश्चिमी जिले बाड़मेर के छोटे से गांव ऊंडखा में बहुत ही गरीब परिवार में पैदा हुए।

परिस्थितियां इतनी विपरीत थी कि दो वक्त खाने की भी तंगी रहती है, उसी माहौल में गिरधर ने स्कूल जाना शुरू किया। उनका पढ़ाई के प्रति शुरू से ही बेहद लगाव था। किताबें डालने के लिए ना बस्ता था ना ही स्कूल की गणवेश ऐसे में उस गर्मी में भी उनको पैरों में चप्पल नहीं थी।

पड़ोस से मांगे हुए कपड़े व सीमेंट के कट्टे से बनी हुई थैली में पुस्तकें डाल गिरधर पढ़ने जाते थे। जहां गर्मियों में सभी बच्चे घर पर आराम कर रहे होते छुट्टियां मना रहे होते उन दिनों गिरधर बाड़मेर शहर में किसी दुकान पर सामान उठाते थे।

धीरे धीरे गिरधर बड़े होने लगे घर की जिम्मेदारियां और बढ़ गई। पिताजी जहां शराब में मगन रहते तथा उनका बड़ा भाई विकलांग था। खुद के बलबूते पढ़ना व घर संभालना आसान नहीं था फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और हालातों के ख़िलाफ़ डटे रहे।

सरकारी नौकरी था सपना

दिन में पढ़ने जाते तथा कभी रात को शहर में अख़बार की फैक्ट्री में काम करने जाते कभी किसी के यहां दस-दस जनों का खाना बना अपना खर्चा चलाते थे। कॉलेज तक आते आते प्रतियोगी परीक्षा में शामिल होने लगे लेकिन मुसीबतें अभी कहां ख़त्म हुई थी।

बार-बार परीक्षा दी लेकिन हर बार विफल रहे, एक-एक करके उन्होंने इक्कीस परीक्षाओं में भाग लिया लेकिन परिणाम एक भी उनके पक्ष में नहीं ही रहा। निराशा घर करने लगी सभी कहने लगे तेरी किस्मत नहीं है तुझे अब यह छोड़ कोई काम धंधा शुरू कर देना चाहिए परन्तु गिरधर का मन अभी नहीं हारा था। उनका एक ही सपना था सरकारी नौकरी।

गिरधर के परिवार की परिस्थितियां औरों की तरह सामान्य गरीबी वाली भी नहीं थी पहले उनकी दादीसा फिर उनके चाचा और फिर एक और चाचा ने आत्महत्या कर ली इस तरह लगातार घर में तीन आत्महत्याएं किसी भी व्यक्ति के मनोबल को तोड़ सकती है।

अभी सिलसिला कहां रुका था आखिर में विकलांग भाई ने भी आत्महत्या कर ली, गिरधर कहते है कि उस वक्त मुझे भी ख्याल आया कि मर जाना चाहिए अब क्या रखा है दुनिया में लेकिन फिर घर में बैठे बूढ़े मां बाप को देखकर वापस कुछ करने की आस जगी और ठान लिया कि मै घर में खुशियां लाकर ही दम लूंगा।

रख हौसला वो मंजर भी आयेगा

प्यासे के पास चल के समुन्दर भी आयेगा

थक कर न बैठ ऐ मंजिल के मुसाफिर

मंजिल भी मिलेगी और मिलने का मज़ा भी आयेगा

आखिर इक्कीस परीक्षाओं में विफल होने के बाद वो दिन आ ही गया जब गिरधर सरकारी नौकरी लेने में सफल हो ही गए। आज गिरधर बाड़मेर में ही ग्राम विकास अधिकारी है।

गिरधर बताते है कि यह सफलता मेरे लिए बड़ी बात नहीं है यह उस लड़के के लिए बड़ी बात है जिसने अपने घर में चार चार आत्महत्याएं देखी। गर्मियों में नंगे पैर स्कूल जाया करता था। जिसने अपनी अभी तक जिंदगी को किताबों और कपड़े की फैक्ट्री के बीच काम करने में गुजारा हो।

वो कहते है कि मेरी सफलता का रहस्य बस इतना ही है कि मैंने अपनी हिम्मत को बरकरार रखा और मेहनत करता रहा। बाहरी परिस्थितियां कितनी भी विकट क्यों ना हो जब तक अंदर की आग ज़िंदा है आपको कोई नहीं रोक सकता। नीचे लिखी यह कुछ पंक्तियां जो अभी गिरधर सिंह के कमरे में चिपकी रहती है।

सोच को बदलो तो सितारे बदल जाते है

नज़र को बदलो तो नजारे बदल जाते है

कश्तियों को बदलने की जरूरत नहीं मित्रों

दिशाओं को बदलो तो किनारे अपने आप बदल जाते है

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