चमत्कारिक करणी माता मंदिर की कमाल की अद्भुत कहानी ‘2 रोटी स जिमाई पूरी आर्मी न’

राजस्थान देवी-देवताओं की भूमि रही है। भारत वर्ष में जितने देवी-देवताओं की जन्म-कर्म भूमि राजस्थान रही उतनी शायद ही किसी सूबे की रही हो ।इन्हीं देवी-देवताओं में से एक देवी हैं करणी माता। वह चारण जाति से आती थीं एक जानकारी के हिसाब से सूबे में जितनी भी देवियाँ हुईं उनमें से लगभग इसी चारण जाति से सम्बंध रखती थीं। जहां तक नामकरण का मसला है तो वह कुछ यूँ कि किताबों में नाम करनी माता दिया गया है जबकि देशज में वह नाम करणी माता (Karni Mata) है।करणी जी के संक्षिप्त परिचय से होकर गुजरें तो यह कि करणी माता का जन्म सूआप गांव (वर्तमान स्थिति – फलौदी तहसील, जिला जोधपुर) में चारण शाखा के मेहोजी किनिया के यहाँ सन् 1387 में हुआ।

karni mata mandir

इसी संदर्भ में लोक में और उनके भक्तों में एक दोहा बहुत प्रचलित है-

“आसोज मास उज्जवल पक्ष सातम शुक्रवार।
चौदह सौ चम्मालवे करणी लियो अवतार।।”

करणी माता मंदिर (Karni Mata Mandir) राजस्थान (Rajasthan) के बीकानेर (Bikaner) जिले के देशनोक कस्बे में है।सम्भवतः यह मंदिर सूबे ही नहीं सम्पूर्ण भारत में निर्मित भव्य मंदिरों में गिना जाता रहा है।करणी माता की शादी साठिका गांव के देपोजी बीठू से हुई थी हालांकि कुछ समय बाद जब उनका मन इस औपचारिक दुनिया में नहीं रमा तो उन्होंने अपनी बहन गुलाब की देपोजी से शादी करवा दी और स्वंय भक्ति मार्ग में लीन हो गईं। साठिका और देशनोक के बीच में दूरी कुछ खास नहीं थी, समय माल मवेशियों का था। साठिका में किसी बात को लेकर करणी माता के मन में नाराजगी हो गयी और फिर देपोजी का परिवार देशनोक आ गया।और इसी देशनोक में करणी माता का मंदिर स्थित है।

करणी माता की मूर्ति सर्वप्रथम अणदौ खाती ने स्थापित की थी।चेत्र,विक्रम संवत 1595 में देशनोक मंदिर के गुंभारे में इस मूर्ति की स्थापना होनी बतायी जाता है।मंदिर में रखी मूर्ति जैसलमेर के पीले पत्थर से बनी हुई है जिसमें माताजी के सिर पर मुकुट, कानों में कुंडल, दाहिने हाथ में त्रिशूल है।दोनों हाथों में चूड़ियां भी पहनी हुईं हैं।वर्तमान इस भव्य मंदिर का निर्माण बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बीकानेर नरेश महाराजा गंगा सिंह ने करवाया।मंदिर की वास्तुकला चूंकि समय राजपूतों का था तो सम्पूर्ण स्थापत्य उसी वास्तुकला से सज्जित।मंदिर के प्रवेश द्वार दो बड़े चांदी के किवाड़ों के रूप में लगे हैं।वे किसी आकर्षण से कम नहीं है।दिवारों और कूगंरो पर संगमरमर की कारीगरी भी मंदिर को आभूषणों से सजाती है।

#करणी_मंदिर_देशनोक के आज तक के निर्माण में बहुत लोगों का अपना योग है जो कि समय के आध्यात्म और दैवीय मान्यता को दर्शाती हैं। महाराजा
जैतसी (जेतमालसिंह) ने मुगल बादशाह बाबर के पुत्र कामरान को रातीघाटी के युद्ध में हराया था, मान्यता है कि लड़ते लड़ते जैतसी के पास सैनिकों की कमी हो गयी थी और उसने करणी माता को याद किया और माता के उस आशिर्वाद से जैतसी ने कामरान को युद्ध में परास्त किया।युद्ध के विजय की उपलब्धी उपलक्ष में राजा ने देशनोक पहुंच कर गुंभारे पर कच्ची ईंटो का मंदिर बनाया।फिर वि. स. सौलह सौ के उत्तरार्द्ध में महाराज सूर सिंह ने इस मंदिर के चारों ओर मंडप बनवाया।महाराजा सूरतसिंह ने राजा जैतसी द्वारा बनाए कच्चे गुंभारे को पक्का किया और संगमरमर से मंदिर को सुसज्जित कर दिया।

इस मंदिर की सबसे बड़ी लोक चमत्कारिक बात मंदिर में असंख्य तादाद में चूहों का होना है।लोक में प्रचलित मान्यता के मुताबिक देपोजी का बेटा(गुलाब बाई से) लाखन पवित्र मुनि कपिल सरोवर कोलायत में नहाने के लिए गया था और वहाँ पैर फिसलने की वज़ह से वह डूब गया और उसकी वहीं मृत्यु हो गयी।जब इस बात का पता करणी माता को चला तो वह धर्मराज के सामने हठ कर बैठ गईं कि इसे जिवित करना होगा।और प्रचलित कथा के अनुसार जब उसे जीवित नहीं किया गया तो धर्मराज को करणी माता ने जाते हुए कहा कि अब मेरे वंश का कोई व्यक्ति तेरे यहाँ नहीं आयेगा।और कहते हैं कि उसके बाद से जितने भी उनके वंशज(देपावत) गुजर जाते हैं तो वे मंदिर प्रांगण में ही चूहे के रूप में अपनी माँ के पास रहते हैं।जहाँ इतनी तादाद में चूहे हों वहाँ प्लेग जैसी महामारी का फैलना भी कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन ऐसा कुछ आज तक नहीं पाया।भक्त इस बात को दैवीय चमत्कार में लेते हैं।मंदिर परिसर में कुछ सफेद चूहे भी हैं।सफेद चूहे के दर्शन शुभ माने जाते हैं।माना जाता है कि वह व्यक्ति भाग्यशाली है जिसको सफेद चूहा दिख गया।यहाँ की लोकभासा में इन चूहों को काबा कहा जाता है।सोने का छत्र भी मंदिर का मुख्य आकर्षण है।

नेहडी़ जी मंदिर (Nehdi Mandir):

निजी मंदिर से पश्चिम की ओर लगभग दो-ढाई किलोमीटर दूर एक और मंदिर स्थित है जिसे ‘नेहडी़ जी मंदिर’ के नाम से जाना जाता है।साठिका से आने के बाद वे वहाँ अपने मवेशियों के साथ रुकी थीं।और खेजडी़ की लकडी रोप वहाँ नेहडी़(बिलौना करने के लिए बनायी एक व्यव्स्था) बनायी और बताते हैं कि वह दैवीय शक्ति के हाथों उपयोग में आने के कारण एक समय बाद हरीभरी खेजडी़ में बदल गयी।आज भी वह खेजड़ी अपने मूल रूप में आप देख सकते हैं।उस पर दही के छींटे भी दर्शनीय है।

श्री आवड़ माता जी का मंदिर (Shri Awad Mata Mandir):

निज मंदिर से एक किलोमीटर उत्तर की ओर श्री आवड़ माता जी का मंदिर स्थित है।आश्विन के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को जब इस मंदिर में मेला भरता है तो उसी दिन निज मंदिर से करणी माता की मूर्ति को उपर्युक्त उल्लेखित मंदिर तक शोभायात्रा के रूप में ले जाया है, उस समय एक घटना घटती है वह आश्चर्यजनक है।जैसे ही मूल मंदिर से मूर्ति बाहर लाते हैं वैसे ही आकाश में सात चीलें जिन्हें लोकभासा में संवळी/समळी (माना जाता है कि यह पक्षी करणी जी का रूप है) कहा जाता है, आ जाती हैं और वे आवड़ मंदिर तक साथ चलती हैं और फिर ग़ायब।यह एक अद्भुत बात है।

सुआप, साठिका,गड़ियाला और पूंगल,यहाँ भी करणी माता के मुख्य मंदीर है।पूंगल अर्थात पूंगळ मंदिर (Pugal Mandir) की अपनी खासियत है।यह करणी मंदिरों में एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां देवी के त्रिशूल की पूजा होती है।ध्यातव्य रहे बीकानेर नरेश बीकाजी राठौर का ससुराल इसी पूंगल में था और यह विवाह करणी माता ने करवाया था पूंगळ नरेश राव शेखा की बेटी रंग कंवर के साथ।

मंदिर में हर वर्ष या कहें कि हर दिन श्रद्धालुओं की भीड़ नजर आती है।मंदिर निजी प्रन्यास है जिस पर पूरा अधिकार माता के नाम से बने ट्रस्ट का है।बहरहाल सामंती दौर से लेकर आज के वैज्ञानिक दौर तक के समय में सब कुछ परिवर्तन में है किन्तु लोक का अपने आराध्यों को बड़ी आस्था से पूजना एक अलग बात है।

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