राजपूत रणबांकुरो का पराक्रम देख शेरशाह सूरी हुए मुरीद, जानिए गिरी सुमेल युद्ध का रोचक इतिहास

राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि इतिहास में कई युद्धों की साक्षी रही है, यहां के रणबांकुरो ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अनेकों बार अपने प्राणों की आहुति दी है. इन्हीं बलिदानों में से एक है गिरी सुमेल का युद्ध जो विश्व भर में अपना गौरवपूर्ण स्थान रखता है, इस युद्ध में कई राठौड़ रणबांकुरे मातृभूमि रक्षा के लिए शहीद हुए।

गिरी सुमेल का युद्ध 5 जनवरी 1544 (वि. सं. 1600) को मारवाड़ के राव मालदेव व अफगान शासक शेरशाह सूरी के बीच लड़ा गया था. ऐसा कहा जाता है कि इस युद्ध में मात्र 8000 राजपूत सपूतों ने 60000 की अफगान सेना छक्के छुड़ा दिए थे।

इस युद्ध के तत्कालीन कारणों पर नजर डालें तो राव मालदेव ने शासक बनते ही अपने राज्य का विस्तार करना प्रारंभ कर दिया था. राव मालदेव राजपुताने की प्रमुख रियायतों को अपने राज्य में मिला लिया. राव मालदेव यहीं नहीं रुके और अपने राज्य का विस्तार बयाना, फतेहपुर सीकरी, हिंडौन तक कर दिया।

शेरशाह सूरी भी एक महत्वाकांक्षी शासक था। जब मालदेव का सीमा विस्तार दिल्ली के पास आता नजर आया तो शेरशाह सूरी ने उसे रोकने की अटकलें लगाई जिसके चलते युद्ध होना स्वाभाविक था।

शेरशाह सूरी एक विशाल सेना को लेकर वर्तमान पाली के सुमेल नामक स्थान पर आ पहुंचा। दूसरी तरफ राव मालदेव को जब यह खबर लगी तो मालदेव ने अपनी सेना को तैयार करवाया और गिरी नामक स्थान पर राजपूती सेना का पड़ाव डाला गया।

कई दिनों तक छोटे व अनिर्णायक युद्धों से परेशान होकर सूरी ने कूटनीतिक योजनाएं बनाई। सूरी ने मारवाड़ी सेना में यह जाली सूचना फैला दी कि युद्ध से पहले सरदार मालदेव को बंदी बनाकर अफगानी सेना को सौंप देंगे।

मारवाड़ी सेना के सेनापति राव जेता व राव कुंपा तथा अन्य राजपूत वीरों ने राव मालदेव को समझाने का अथक प्रयास किया पर मालदेव ने अपना इरादा नहीं बदला। राजपूत वीरों को अपने उपर लगे कलंक को मिटाने व स्वाभिमान बचाने के लिए यह युद्ध लड़ना बहुत आवश्यक था। जब मगरांचल के ठिकानेदार नरा चौहान ने राव मालदेव के लौट जाने व राजपूत वीरों के युद्ध लड़ने की बात सुनी तो वो भी अपनी 3000 की सेना के साथ गिरी आ पहुंचे। ऐसे में राजपूत सरदारों का जोश और बढ़ गया।

5 जनवरी 1544 को सवेरा होते ही राजपूती तलवारों का शोर चारों तरफ गूंजने लगा। रक्त की प्यासी तलवारें अफगान सेना के लहू से अपनी प्यास बुझाने लगी। राठौड़ सरदारों के अदम्य साहस के आगे अफगानी सेना के पैर छूटने लगे। शेरशाह मैदान छोड़ने को मजबूर हो गया था । तभी वहां संयोगवश जलालुद्दीन अपनी सेना के लेकर वहां पहुंच गया।

प्रमुख मारवाड़ी सरदार जैता राठौड़, कुम्पा राठौड़, लखा जी चौहान, अखैराज सोनगरा, मानजी चारण, अल्लदाद कायमखानी लुंबाजी भाट आदि राजपूत सेना के सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। नरा जी चौहान के अदम्य साहस से प्रेरित होकर राव मालदेव ने उनके पुत्र सुजाजी को बर की जागीर प्रदान की।

इस युद्ध में राजपूत रणबांकुरो का पराक्रम को देखकर शेरशाह ने कहा था “मैं मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता और मेरे साथ ऐसे वीर होते तो मैं विश्व विजय कर लेता। युद्ध के बारे में कहा जाता है इतिहास में ऐसा कोई युद्ध नहीं जिसमें राजा सेना सहित लौट जाने के बाद महज सेनापतियों ने अपने से कई गुना बड़ी सेना को लौट जाने के लिए मजबूर कर दिया हो।

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