जैसलमेर का एक भू’तिया और वीरान गाँव जिसको पालीवाल ब्राह्मणों ने दिया श्रा’प, डरते है लोग

सूबे के बाहर के लोग जब कुलधरा और भानगढ़ का नाम सुनते हैं तब उनके मस्तिष्क में एक ही छवि बनती है वो है भू’तिया जगह की।लेकिन दोनों जगहों के पीछे की कहानी इतनी मार्मिक है कि क्या कहा जाय? कोई 170 साल पहले की घटना।घटना है पालीवालों के महाभिनिष्क्रमण की, जिसमें 84 गाँव एक साथ अपने बोरी बिस्तर बाँध पलायन कर गये थे।जैसलमेर से तकरीबन 18-20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कुलधरा इन्हीं चौरासी गांवों का एक गांव था।यूँ जितनी जानकारी मिलती है उसके मुताबिक कुलधरा गांव 1291 में मेहनती और अमीर पालीवाल ब्राह्मणों की कुलधार शाखा ने तकरीबन छह सौ घरों वाले इस गांव को बसाया था।ईंट पत्थर से बने कुलधरा गांव की बनावट ऐसी थी कि यहां कभी गर्मी का अहसास नहीं होता था। कुलधरा तमाम ये खण्डहर हो चुके घरों में रेगिस्तान की भरी लू वाली गर्मी में भी ठंडक का अहसास कराते हैं।

जिस समय की उपर उल्लेखित यह घटना है उस समय जैसलमेर पर राज रावळ मूलराज का था और आने वाला समय गजसिंह का था।इनके कार्यकाल में जैसलमेर का दीवान मेहता सालिम सिंह था।कहा जाता है कि दीवान सालिम सिंह की नज़र कुलधरा गाँव के पुजारी की बेटी पर पड़ गयी।सालिम सिंह को वह पसंद आ गयी,दीवान था, इलाके में प्रबल था।पालीवालों स्व कहा मेरी इससे शादी करवा दो और शादी नहीं करवायी तो यह कुलधरा कुलधरा नहीं रहेगा।सब खराब हो जायेगा।

पालीवाल स्वाभिमानी थे।सालिम सिंह की इस धमकी के बाद रातों रात पालीवालों के पांच हजार परिवार पलायन कर गये।वे लोग कहाँ गए, किधर गये कोई प्रामाणिक जानकरी नहीं मिलती।लोक मान्यताओं के मुताबिक पालीवालों ने जाते वक़्त इस गाँव को श्रा’प दिया कि अब इस गांव में कोई नहीं रह सकेगा और तब से यह गाँव सूना पड़ गया।इतिहासकारों के मुताबिक पालीवाल ब्राह्मणों ने अपनी संपत्ति जिसमें भारी मात्रा में सोना-चांदी और हीरे-जवाहरात थे, उसे जमीन के अंदर दबा रखा था। यही वजह है कि जो कोई भी यहां आता है वह जगह-जगह खुदाई करने लग जाता है।यह गांव पता नहीं कितनी बार खुदा जा चुका।

गांवों में कोई मकान बहुत पुराना हो जाता है और वह बरसों बरस निर्जन रहे तो लोग एक मिथ रचते हैं कि उसमें भूत है।कुलधरा के आसपास के गांवों के लोगों के मुताबिक यही दृश्य कुलधरा के साथ है।दो सदियाँ बीतने को है।कोई नहीं रह रहा तो लोगों ने “भूत रहते हैं” जैसी कहानियाँ रच दीं।ख़ैर अब तो पुरातात्विक स्थल बन गया।लोग नये प्रयोग कर रहे।सरकारें इस गांव को पुरातात्विक धरोहर के रूप में शामिल करने के लिए प्रयासरत है।यूं एक जानकारी के मुताबिक गांव में एक मंदिर है जो आज भी श्राप से मुक्त है। एक बावड़ी भी है जो उस दौर में पीने के पानी का माध्यम रहा होगा।तैयार मिथ यह उल्लेख करता है कि शाम ढलने के बाद आवाजें आती है, जो लगभग दो सौ साल पहले जा चुके पालीवालों की है।

कुछ समय पहले लगभग 2013 में दिल्ली से भू’त प्रे’त व आ’त्माओं पर रिसर्च करने वाली पेरानार्मल सोसायटी की टीम इस गांव में रात के समय रुकी।टीम के मुताबिक यहां कुछ न कुछ असामान्य जरूर है, लेकिन वह कुछ भू’त तो नहीं ही है।कुलधरा पर रिसर्च करने पर पता चला है कि पालीवाल ज्योग्रोफिक्ल थे।वे रेगिस्तान के व्यापारी तथा बड़े किसान थे अपने समय के।उन्होंने अपने गाँव ऐसी जगह बसाये जहां जमीन के अंदर चूने की मात्रा ज्यादा हों और उससे उन्होंने खडी़न बनाये।वे इस सूने पडे़ क्षेत्र में जोरदार फसल लेते थे।

निष्कर्ष यही निकलता है कि जु’ल्मका’री दीवान की अनितियों के कारण पालीवालों ने अपना वतन छोड़ पलायन किया और रावळ सहाब से निवेदन किया – “रावळ सा म्हांनै एकर जैसाण देखावौ”।बहरहाल आप कुलधरा के बारे में और भी ज्यादा जानकारी चाहते हैं तो राजस्थानी के समर्थ रचनाकार ओमप्रकाश भाटिया लिखित महत्वपूर्ण उपन्यास ‘दीवान सालिम सिंह’ पढ़ सकते हैं।

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