बिना नीवं के टिका गागरोन का किला जिसे दुश्म’नों से बचाने के लिए महिलाओं ने किया जौ’हर

आहू और कालीसिंध के संगम स्थल पर बना यह किला दक्षिण पूर्वी राजस्थान के सबसे प्राचीन किला में से एक हैं झालावाड़ से 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गागरोन का किला डोडगढ़ या धुलरगढ़ भी कहलाता है।पानी से घिरा होने के कारण यह दुर्ग जलदुर्ग की श्रेणी में आता है।देवेनसिंह ने बारहवीं शताब्दी में डोड शासक बीजलदेव से जीत कर इसका नाम गागरोन रख दिया था।तब से यह गागरोन का किला कहा जाने लगा।

यूँ यह बहुत एतिहासिक और प्राचीन जगह है, कई पुरातात्विक वस्तुएँ यहाँ उपलब्ध हुई हैं।गागरोन के खींची हमेशा से प्रबल हाथ वाले रहे, सन् 1303 में यहां के राजा जयसिंह के शासनकाल में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गागरोन पर आक्रमण किया था परंतु जयसिंह ने उसको हरा दिया।राजा जयसिंह के शासनकाल में खुरासान के प्रसिद्ध सूफी संत हमीदुद्दीन चिश्ती भी गागरोन आए।यहाँ उनकी समाधि भी स्थित है ।लोक में उन्हें सूफी संत ‘मिट्ठे साहब’ के नाम से पूजते हैं।

इसी गागरोन के खींची वंश में पीपाराव नाम के एक राजा हुए जिन्होंने संसार, वैभव आदि का त्याग कर संत रामानंद जी के शिष्य बन गए, नदियों के संगम स्थल पर उनकी छतरी बनी हुई है।उनकी पुण्यतिथि पर यहाँ हर वर्ष मेला भरता है।स्थापत्य बेजोड़ है।सबसे बड़ी विशेषता है प्राकृतिक सुरक्षा यथा. – ऊंची पर्वतमालाएँ की अभेद दीवारें सतत प्रवाह मान नदियों और सघन वन से गागरोन को एक सुरक्षा का टूल मिलता रहता था।किले का भूगोल और स्थिति कुछ भिन्न है, शत्रु सोचता था कि कैसे जाया जाये।गागरोन दुर्ग के प्रवेशद्वार में सूरजपोल, भैरवपोल तथा गणेशपोल हैं।दो बुर्ज भी किले की इकाईयों में शामिल है- रामबुर्ज व ध्वजाबुर्ज।

साके
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पहला :-गागरोन दुर्ग के इतिहास में दो साके हुए जिसमें पहला साका अचलदास के शासन में हुआ।अचलदास की प्राणी मेवाड़ दरबार कुंभा की बहन थी।मांडू के सुल्तान अलपखाँ गोरी उर्फ़ होशंगशाह ने 1423 में वीरगति प्राप्त होने पर उसकी रानियों व दुर्ग की वीरांगना होने जौहर की ज्वाला में जलकर अपनी गरिमा और मान सम्मान को बचाया।प्रसिद्ध कवि शिवदास गाड़ण ने अपनी काव्य कृति अचलदास खींची री वचनिका मैं इस युद्ध का वर्णन भी किया।

दूसरा :-1444 में गागरोन पर अचलदास के पुत्र पाल्हणसी का राज था।इसमें भी वीरों ने केसरिया पहन अपने जीव की आहुति दी और वीरांगनाओं ने जोहर कर अपने सतीत्व की रक्षा की। गागरोन के इस दूसरे साके का “मआसिरे महमूदशाही” के अंदर विस्तृत वर्णन किया गया है।एक जानकारी के मुताबिक विजय सुल्तान ने दुर्ग में एक और कोट का निर्माण करवाया तथा उसका नाम ‘मुस्तफाबाद’ रखा।पृथ्वीराज राठौड़ अपनी प्रसिद्ध कृति ‘वेली किसनरुखमणी’ को इसी दुर्ग में लिखा।शाहजहां के शासनकाल में जब कोटा में हाड़ाओं का अलग से राज्य स्थापित बन गया तब गागरोन कोटा के राव मुकुंद सिंह के हाथ आया फिर स्वतंत्रता प्राप्ति तक कोटा के हाड़ा नरेशों के अधिकार में रहा हर फिर उन्होंने इस प्राचीन दुर्ग का जीर्णोद्धार एवं विस्तार करवाया।लगभग 1532 में गुजरात के बहादुर शाह ने इस किले पर आक्रमण कर इसे मेवाड़ के महाराणा विक्रमादित्य से जीत लिया था और किले पर कई साल तक राज किया।बहादुर शाह पक्षीप्रेमी था, किले में पाए जाने वाले हीरामन तोत्ते को अपने साथ रखता था हीरामन तोत्ते बोलने में माहिर थे और वफादार भी।आज भी गागरोन किले में यही हीरामन तोते आपको देखने को मिल जायेंगे।

कैसे पहुँचे?
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किला झालावाड से 10 किलोमीटर दूर जंगल में स्तिथ है,इसलिए यहाँ तक आने का साधन केवल टैक्सी ही है, और दूसरा विकल्प आपका अपना साधन।झालावाड-कोटा के साथ रेलमार्ग से जुडा हुआ है और राजकीय बस निरंतर चलती रहती है। झालावाड से कोटा लगभग 110 km. और बारां 80 km. दूर है।

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