नरहड़ की दरगाह जहाँ सदियों से जलता चांदी का चिराग जिससे नष्ट होती बीमारी

जब अजमेर में सूफी धारा के संत मोइनुद्दीन चिश्ती हुए ठीक उसी समय शेखावाटी के में भी शक्करबार शाह नाम के पीर हुए।ठीक वैसे ही सिद्ध पुरुष जैसे चिश्ती थे।इन्ही शक्करबार शाह के नाम से यह दरगाह निर्मित है।झुंझुनूं (Jhunjhunu) के नरहड़ (Narhad) कस्बे में बनी यह नरहड़ दरगाह (Narhad Dargah) कौमी एकता की ग़ज़ब की मिसाल है।इसी दरगाह में श्री कृष्ण का मेला भरता है जिसमें हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मों के अनुयायी अनेक जिलों, प्रदेशों से पूजा बाबत आते हैं।नरहर पर कभी मुस्लिमों और नेहरा गोत्र के जाटों का आधिपत्य रहा।हालांकि अब इस गांव में रिणवा, धायल गोत्र का बाहुल्य है या कहें कि जाट बाहुल्य है।कभी नरहड़ गांव प्राचीन जोड़ राजपूतों की राजधानी हुआ करती थी और उस वक़्त यहाँ 55 बाजार थे।

नरहड़ में स्थित इस दरगाह के बारे में लोक में जिस बात का जिक्र है वह यह कि कभी दरगाह के गुंबद से शक्कर बरसती थी।शक्करबार शाह ने चिश्ती के कुछ समय बाद ही देह त्याग दी।लोग मजार पर मिठाइयाँ, चादर आदि चढ़ाते हैं और अपनी जिस्मानी, शैतानी और शेष सभी मुरादें पूरी होने की गुजारिश करते हैं।सजदा होकर।नीली डोरी बाँधकर।

नरहड़ की सात साढ़े सात सौ बरसों की यह परंपरा यूँ ही अनवरत जारी है।नरहड़ पीर (Narhad Peer) की लोक में मान्यता है कि दरगाह में जिस किसी शख्स की आँखों में परेशानी होती है उसकी आंखों में काजल लगाया जाता है जिससे उसकी आँखों को सुकून मिलता है।आँखों की सभी बीमारियाँ खत्म हो जाती है।दरगाह में आप जाएंगे तो आपको एक आश्चर्यजनक दृश्य दिखेगा जिसको देखकर आप सोचेंगे कि विज्ञान और तकनीक के इस युग में ये क्या? लेकिन यहाँ का लोक उसमें गहरी आस्था रखता है वह अपने शरीर पर मिट्टी रगड़ता है और पीर उसकी रूह को आराम देते हैं।केवल मिट्टी मसलने से नहीं, दरगाह में प्रदत जल और डोरी बांधने पर ही तंत्र मकबूल होता है।

दरगाह में पीर की स’माधि पर चिराग जलता रहता है जो कि चांदी का है।स्थानीय लोगों का कहना कि ये चिराग सदियों से जलता आ रहा और इस चिराग के तेल को लगाने से हर बीमारी का मूल नष्ट हो जाता है।दरगाह के अंदर ही एक तराजू स्थापित है जो मन्नतों के मकबूल होने के बाद काम में आता है।दरगाह में पहला द्वार बुलंद द्वार है तो दूसरा द्वार बसंती नाम की किसी स्त्री द्वारा बनाया गया है जिसे बसंती द्वार भी कहते हैं।लोगों का कहना कि बसंती ने बाबा से मन्नत मांगी थी कि मेरे कैंसर ठीक हो गया तो तेरे दरवाजे बनवाऊंगी और वह जब सच में ठीक हो गयी तो उसने इस द्वार का निर्माण करवाया।

तीसरा बगली दरवाजा है।बुलंद दरवाजे का निर्माण बीस-बाईस साल पहले सरदारशहर (Sardarshahar) निवासी और वर्तमान आंध्रा निवासी प्रताप सिंह छाजेड़ ने कराया।श्रद्धालुओं का कहना कि हम नहीं आते हमें बाबा बुला लेता है हाजिरी लगाने बाबत।दरगाह में आयी एक बूढ़ी औरत ने बताया कि “बाबौ स्सै ठीक करैगो”।श्रद्धालुओं के लिए रहने की उचित व्यवस्था भी उपलब्ध है ताकि वे आराम से रह लें और अपनी बीमारियों का इलाज करवा सके।स्थानीय लोगों का कहना की सभी उत्सव चाहे होली या दीवाली, मुहर्रम हो या बकरा ईद, सब मिलकर मनाते हैं।नरहड़ पीर को ‘बागड़ को धणी’ भी कहा जाता है।दरअसल बग्गड़, चिडा़वा, पिलानी के आसपास के इलाके में नरहड़ पीर की गहरी आस्था रूपी पैठ होने के कारण यह उपमा दी जाती है।दरगाह का गुंबद चिकनी मिट्टी का बना हुआ है।कैसी ही विपदा क्यों न हो, आँधी तूफान।किसी से भी नहीं डिगता यह।

दरगाह के खादिम मोहम्मद सलीम पीरजी बताते हैं कि गुंबद बनाने के पीछे की भी एक कहानी है वह कुछ यूँ कि एक बंजारा यहाँ से जब शक्कर बरसा करती थी तब शक्कर बोरे में भरकर बेचने जा रहे थे और बीच में जब पीर साहब साधारण भेष में मिले और पूछा कि- “बेटा इसमें क्या लेकर जा रहे हो?” तो चोरी के डर से उसने कहा कि-“बाबा कुछ नहीं इसमें तो नमक है” और मान्यता है कि जब वह गंतव्य पहुंचा और उस बोरे को खोला तो उसने उसमें नमक पाया।इस घटना के बाद बंजारा दौड़ता हुआ नरहड़ आया और गुंबद का निर्माण करवाया।

हिंदुस्तान में आज भी लोगों को जात धर्म में बांट दिया जाता है। लोगों को जाति और धर्म के नाम पर भड़काया जाता है। लेकिन इन सभी से उठकर कुछ ऐसे उदाहरण भी हमारे सामने आते हैं जो हमें इंसान को इंसानियत सिखाते हैं।

ऐसा ही एक उदाहरण है झुंझुनू के चिड़ावा नरहड़ कस्बे का यहां की हाजिब शक्कर शाह दरगाह में आज भी लोग मिल जुलकर हिंदू त्योहार कृष्ण जन्माष्टमी को मनाते हैं। हिंदू धर्म में कृष्ण जन्माष्टमी का त्योहार भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। हाजिर शक्कर शाह की दरगाह पर भी यह त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। बताया जाता है कि दरगाह के गोबंद से शक्कर बरसती थी इसलिए इसका नाम शक्कर बार बाबा दरगाह रखा गया।

यहां की दरगाह में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की छठ से तीन दिवसीय मेले की शुरुआत होती है। यह मेला कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर रखा जाता है। कौमी एकता का प्रतीक और उसका एक बेहतरीन उदाहरण है शक्कर शाह की दरगाह है। इस तीन दिवसीय मेले में हिंदू के साथ मुसलमान भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते है। दरगाह में हर धर्म के व्यक्ति को पूजा अर्चना करने का अधिकार है। इस का कारण है कि तीन दिवसीय जन्माष्टमी मेला। मेले में राजस्थान के अलावा पड़ोसी राज्यों से भी लोग शामिल होते हैं। यहां गुजरात,हरियाणा,पंजाब, मध्य प्रदेश,दिल्ली,आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र से भी लाखों लोग शामिल होते हैं। लाखों लोग हजरत हाजी की मजार पर चादर,कपड़े,नारियल, मिठाइयां व नगद रुपया जैसी चीजें भेज चढ़ाते हैं। जहां हिंदू धर्म की रीति रिवाजों के अनुसार जन्माष्टमी के दिन रात जगा भी होता है। रात को जागरण होते हैं, वही चिड़ावा का दुलजी राणा परिवार व उनके साथी कलाकार नृत्य नाटिकाओं की भी प्रस्तुति करते हैं।

रात जगा कर पुरानी परंपराओं को आज भी कायम रखा गया है। दरगाह के खादिम हाजी अजीज खान पठान बताते हैं कि हमें यह तो नहीं मालूम कि है कब शुरू हुआ लेकिन हमारे पूर्वज बताया करते थे लगभग 700 वर्ष से अधिक समय से यहां जन्माष्टमी का त्यौहार मनाया जाता है। हम हिंदू मुसलमान की एकता को यहां प्रदर्शित करते हैं। इंसान को इंसान की तरह हम देखते हैं। जाति धर्म में लोग बांट दी गई लेकिन यहां सब एक है खादिम एवं इंतजा मियां कमेटी करीब 700 वर्ष से अधिक समय से यह तीन दिवसीय मेले का आयोजन कर रही है।

खादिम एवं इंतजामिया कमेटी करीब 700 वर्षो से अधिक सालो से यह मेले का आयोजन कर रही हैं।

इस दिन मुसलमान परिवार भी यहां भंडारे का आयोजन करते हैं और वहां हिंदू मुस्लिम सभी लोग साथ बैठकर खाना भी खाते है।

वाकई यह दरगाह इंसानियत का एक बहुत बड़ा उदाहरण है।

यह है कहानी नरहड़ के पीर शक्करबार शाह की।

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