समाजसेवी सुमन चौधरी की मां की ममता पाठशाला जहाँ मिलती है असहाय बच्चों को शिक्षा

क्रांतियाँ हमेशा दीर्घकालिक होती हैं।कोई वस्तु अपना नियम तोड़ती है तो वह बहुत समय लगाती है।ऐसी ही सोच रखती हैं झुंझुनूं की सुमन चौधरी।सुमन बेघर और असहाय बच्चों को शिक्षा देती है – ‘मां की ममता पाठशाला’ में।वे कहती हैं कि मैं ने पहले कुछ समय ताज सोचा कि मैं कैसे इन बच्चों की मदद करूँ? न इनके पास बोलने का सलीका, न बैठने की तहज़ीब, चप्पल भी सीधी नहीं पहनते।इनको किसी दूसरे तरीके से मदद करूँ तो यह ठीक नहीं रहेगा, मैंने इन्हें एक विद्यालय बनाकर उसमें शिक्षित करने की योजना बनाई और वह आज सफल हो गयी हैं।

कच्ची बस्तियों की बात हमारे समय के बुद्घिजीवी कर तो लेते हैं लेकिन उनमें घुसने का साहस उनमें न के बराबर है और अगर कभी घुस भी जाए तो भौं सिकुड़ कर बाहर निकलते हैं।ऐसे समय में चौधरी कच्ची बस्तियों के इन बच्चों को शिक्षा दे रहीं।यह एक क्रांति ही है।सुमन बताती हैं कि मेरे पास कोई इतना आर्थिक आधार नहीं कि मैं वेन लगा सकूं या किसी बिल्डिंग को किराये लेकर इनको पढ़ाई करवाऊं, इसलिए मैंने यहीं एक कमरे में इन्हें पढ़ाने का मन बना लिया और इस मन ने एक साल पूरा कर लिया है।

ऐसा नहीं है कि सुमन चौधरी ने और औरतों की तरह इस रीढ़विहीन समाज के ताने नहीं सुने।उनकी ही जुबानी कि लोग तरह तरह की बातें करते हैं – कोई कहता है ढोंग कर रही, दिखावा कर रही तो कोई कहता है राजनीति में आने का यह प्रयास है लेकिन लोग क्या कहते हैं मुझे इसकी रति भर परवाह नहीं है।मुझे इन बच्चों के लिए कुछ कर जाना है।इन पचास बच्चों में से कुछ ही सही, पढ़ना लिखना सीख जाए और अपना मुकाम हासिल कर ले, मेरे लिए इतना पर्याप्त है।

इन सभी बच्चों के संरक्षक नशे में डूबे हुए हैं कोई पुड़िया को हर वक़्त मुँह में दाबे रखता है तो कोई शराब में मशगूल है।इसलिए मैं चाहती हूं कि इनकी औलादें तो इन सबसे बचे, बचे नहीं तो कम से कम पढ़ेंगे तो उन्हें इस स्थिति से निकलने का मार्ग मिल जाएगा। हर महीने इनके संरक्षक लोग को एकत्र करके उन्हें समझाती हूं कि इन सब को कम कर दें, बच्चों का भविष्य देखें।हालांकि ज्यादा तो नहीं लेकिन कुछ परिणाम ठीक आया है।वे लोग भी खुश हैं कि मैं उनके बच्चों के लिए कुछ कर रही,हालांकि उन्होंने शुरू शुरू में बच्चों को नहीं भेजा लेकिन अब उन्हें भी विश्वास हो गया है शायद।

इन बच्चों को यहाँ एकत्र देख आसपास के लोग अपने उत्सव चाहे वो जन्मदिन हों या कुछ और, मनाने आते हैं और बच्चों को अपने हाथ से खिलाकर जाते हैं।उन्हें भी खुशी मिलती होगी और बच्चों को दाना।इन बच्चों के परिवार बूँदी और कुछ जोधपुर से विस्थापित हूं।मजदूर लोग हैं सुबह दस से पांच तक मजदूरी पर रहते हैं और मैं इनके बच्चों के पास।

सुमन विगत आठ सालों से बेसहारा जानवरों की सहायता के लिए भी लगी हुईं हैं।वे कहती हैं कि ये हमारे पर ही आश्रित हैं।हमारे अलावा इनको कौन संभालेगा? इसलिए मुझे जहां कहीं कोई जानवर परेशान दिखता हैं मैं उसे उपचार तक ले जाती हूँ।फोन पर भी सूचनाएं मिल जाती हैं।और मैं मदद के लिए पहुंच जाती हूँ।महामारी के कारण लगे लॉकडाउन में भी मदद का मौका मिला, गांव से चारे की दो गाड़ी मंगवाई और घूम घूम कर बेघर पशुओं को चारा दिया।आर्थिक दिक्कतें हर बार हुईं।कोई पशु बीमार हो जाता, कंपाउंडर को बुलाती वह एक तो बहुत देर से आता और चार पांच सौ ले जाता।

इसलिए मैंने यहाँ के डॉ. सहाब, डॉ. अनिल खिचड़ जी से निवेदन किया और उन्हें सारी बात बताई, फिर मैंने वहां से काफी कुछ चिकित्सीय प्रक्रिया सीखी।स्त्रियों के लिए हर वक़्त तैयार रहती हूँ मैं तो उनसे कहती हूँ कि यह ज़माना बहुत क्रूर है, कई सुरक्षित नहीं है, ऐसे वक़्त में हमें खुद को ही आवाज उठानी होगी।लड़ना होगा।

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