झुंझुनू का विश्व में प्रसिद्ध मूर्तिकार जिन्होंने श’हीदों की मूर्तियां बनाकर उन्हें अमर कर दिया

कला का अपना महत्व होता है, कला का क्षय सम्भव नहीं है।जितना उसे सम्भालेंगे उतनी ही वह निखरती जायेगी।दोस्तों आज हम बात कर रहे हैं झुंझुनूं की पिलानी पंचायत समिति के गांव खुडाणिया के ऐसे शख्स की जिसने अपनी मूर्तिकला से इलाके भर के श’हीदों को अमर कर दिया।मूर्तिकार (Sculptor) का नाम है वीरेंद्र सिंह शेखावत (Virender Singh Shekhawat)।शेखावत साहब बताते हैं कि उन्हें तीसरी कक्षा से ही स्केचिंग में रुचि हो गयी थी और वह रुचि आज आप देख रहे हैं इस रूप में है।उन्होंने फकत श’हीदों की मूर्तियाँ नहीं बनायी।देवी, देवताओं, क्रान्तिकारियों आदि की मूर्तियां भी वीरेन्द्र जी ने बनायी।

दशक नब्बे का रहा होगा जब से वीरेंद्र सिंह ने शिल्पकारी का काम शुरू किया।परिवार कोई खास आर्थिक रूप से संबल था नहीं, इस कारण पढ़ाई भी नाम मात्र की ही चल रही थी। साथ साथ में घर वालों की खेत में हेल्प भी करते थे। वे बताते हैं कि मैं कक्षा 6 से इस काम में इतना रम गया था कि मुझे लगने लगा कि मेरा रास्ता यही है और मैंने दसवीं करके पढ़ाई छोड़ दी। घरवाले चाहते थे कि मैं यह काम ना करूं वे शायद इसलिए यह चाहते थे क्योंकि उनको लगता होगा कि इस काम में कोई भविष्य नहीं है।हालांकि मुझे भी कुछ भविष्य नहीं दिख रहा था लेकिन मुझे लगता था कि मैं इसे कर सकता हूं और मैं एक जुनून के रूप में काम करता था।छुप छुप के काम करता था।

विषय जब आमदनी का आता तो मेरे लिए मुश्किल हो जाता। फिर मैं छोटी-छोटी मूर्तियां बनाता और उन्हें बाजार में भेज देता।उनसे जो पैसा मिलता उसका स्केचिंग और शिल्पकारी का सामान ले आता और यूँ यह क्रम चलता रहता। स्केचिंग और शिल्प कारी का खुमार इतना चढ़ गया कि मैं उसमें ही व्यस्त रहता।एक किस्सा मुझे याद आ रहा है।जब मैं सातवीं क्लास में था तो हमारे एक शिक्षक हुआ करते थे मूलचंद जी।उनकी क्लास शुरू चल रही तह और मैं एक किताब में पसंद आये चित्र को लेकर बैठा गया बनाने।सर ने आवाज लगाई लेकिन मैंने उनकी आवाज सुनी नहीं और गुरु जी पास में आ गए।

मेरे दोस्तों ने मुझे हाथ लगाकर बताया कि सर पास में आ गए हैं से हाथ लगाकर बताया कि सर आ गए।फिर उन्होंने मुझे थोड़ा पीटा भी।ऐसे ही घर वाले जो है, मैं मूर्तियां बनाता था या जो चित्रकारी करता था उसको इधर उधर फेंक देते थे। उम्र जब जिम्मेदारी की हो गई तो घर वालों ने कहा कि अब इस स्केचिंग से कुछ नहीं होने वाला।घर चलाने के लिए कुछ धंधा-वंधा करना होगा।तब मैं अपने चाचा जी के पास चला गया। वे हिसार में रहते थे और एक ट्रक में काम करते थे।तो मैं वहां ट्रकों में रहा एक साल लेकिन मैं वहां भी कॉपी में अपनी चित्रकारी जारी रखता था।जब चाचा जी देखते थे तब डांटते थे कहते थे कि क्या कर रहा है? इससे अच्छा है यहाँ से घर चला जा। तो मैंने कहा गांव चला जाऊंगा लेकिन मैं उसको छोडूंगा नहीं और मैं वहाँ से गांव चला आया।

कई जगह यह काम किया, मजदूरी भी हो जाती थी।दरमियान इन सबके मेरा सम्पर्क उत्तर प्रदेश के एक मंत्री जिनका नाम सुरेश कुमार खन्ना था, उनसे हुआ और वे मुझे शाहजहांपुर ले गए और वहां मैंने 104 फीट की मूर्ति बनाई।और वहां से जम्मू चला गया पैंथर पार्टी में, बलंवत सिंह मनकोटिया के रेफरेंस से, वहां एक जगह है उद्यमपुर, वहाँ मैंने 70 फीट ऊंची मूर्ति बनाई।फिर तो यह सिलसिला चलता रहा, अनेक प्रदेशों में मैंने मूर्तियां बनायी।विद्यालय में हालांकि समय चित्रकला के अनुकूल नहीं था

लेकिन फिर भी मैं इसमें रुचि रखता था, एक गुरुजी थे वो लगातार उत्साहवर्धन करते रहते और कहते थे तुम इसी में लगे रहना और एक दिन कमाल कर जाओगे।छोटा भाई फौज में है तो वो श’हीदों की ड्रेस के बारे में, उनकी रेंक आदि के बारे में मदद करता रहता है।जितना भी आज तक का मेरा काम है वह पूर्णतः मौलिक है, न कभी कोई क्लास जॉइन की, न कोई डिप्लोमा।इस महत्तवपूर्ण शिल्पकारी के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।और कुछ समय पहले ही शेखावत सहाब का नाम लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज हुआ है।शेखावत सहाब कहते हैं कि उनकी इच्छा है कि वे आगामी दिनों में एक संस्था खोलें और उसमें इच्छुक व्यक्तियों के लिए प्रशिक्षण दिया जाये ताकि यह विरासत हर पीढ़ी में साँझा होती जाये।

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