जोधपुर का ऐतिहासिक 7 दरवाज़ों वाला मेहरानगढ़ किला जिस पर श’त्रु हम’ला नहीं कर सकता

यूं तो राजस्थान को ‘राजाओं के स्थान’ के रूप में जाना जाता है लेकिन यह अपने प्राचीनतम किलों के लिए भी प्रसिद्ध है। राजस्थान के प्राचीनतम किलों की बात करें तो एक नाम अवश्य ही ध्यान में आता है वह है मेहरानगढ़ दुर्ग । यह दुर्ग प्राचीन(लगभग 500 वर्ष) होने के साथ-साथ सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित पथरीली चट्टानों पर बना हुआ किला है।किला जोधपुर में स्थित है और इसका निर्माण का कार्य जोधपुर के तत्कालीन शासक राव जोधा द्वारा शुरू करवाया गया था। राव जोधा ने जोधपुर शहर की खोज की थी इसलिए इसे अधिकतर लोग ‘जोधपुर का किला’ नाम से जानते है और इसी आधार पर जोधपुर का प्राचीन नाम जोधाणा पड़ गया था।

15 वीं सदी के तत्कालीन शासक राव जोधा ने जब अपनी राजधानी जोधपुर को बनाने का निर्णय लिया इसके साथ ही उन्हें अपनी सुरक्षा,शक्ति और प्रभाव को जनता के समक्ष स्थापित करने के लिए एक दुर्ग बनवाने की आवश्यकता महसूस हुई। ऐसे में उन्होने जोधपुर में सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित चिड़ियाटूक (पक्षियों की पहाड़ी) पहाड़ी पर अपना किला बनाने का निर्णय लिया।मान्यता के मुताबिक यह किला करनी माता के आशिर्वाद स्वरूप बनाया गया।

पहाड़ी शहर से लगभग 410 फीट(125 मीटर) की दूरी पर स्थित है।शासक राव जोधा द्वारा 12 मई 1459 में इस किले की नींव डाली गई और महाराजा जसवंत सिंह द्वारा 1638-78 में इसका निर्माण कार्य पूरा किया गया। इस किले की आकृति मोर के समान होने के कारण इस किले को ‘मयूरध्वज किला’ या ‘मेहरानगढ़ दुर्ग’ के नाम से जाना जाता है।यह दुर्ग लगभग 125 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।इस किले में कुल में 7 दरवाजे हैं और प्रत्येक दरवाजा किसी न किसी यु’द्ध में विजय प्राप्ति के उपलक्ष्य में स्मारक के रूप में बनवाया गया था। इन दरवाजों में सबसे प्रमुख है – ‘जयपोल’ जिसका अर्थ होता है ‘विजय का दरवाजा’ (1806 में जयपुर व बीकानेर यु’द्ध में विजय के उपलक्ष्य में महाराजा मान सिंह द्वारा बनवाया गया था)।इस पोल के आस-पास आज भी तो’पों के निशान देखे जा सकते हैं। ‘फ़तेह पोल’- 1707 में मुगलों पर मिली जीत की खुशी में महाराजा अजयसिंह द्वारा इसका निर्माण करवाया गया था। ‘लौह पोल’- यह किले का सबसे अंतिम द्वार है इसके बायें तरफ रानियों के लिए हाथों के निशान है जिन्हें ‘सती चिह्न’ के रूप में भी जाना जाता है।

सुरक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो यह दुर्ग अनगिनत बुर्जों और लगभग 10 किलोमीटर लम्बी दीवार से घिरा हुआ है जिसे परकोटा कहा जाता है इसके साथ ही यह किला अपने चारों ओर से अदृश्य घुमावदार सड़कों से घिरा हुआ है जिससे श’त्रु द्वारा आसानी से हम’ला नहीं किया जा सकता था। इस विशालकाय किले के एक हिस्से को संग्रहालय के रूप में बदल दिया गया है और इस किले का म्यूजिक राजस्थान का सबसे अच्छा म्यूजियम माना जाता है। संग्रहालय में दर्शकों के देखने के लिए विस्मयकारी संग्रह निहित है जिनमें शाही पालकियां , शाही ह’थि’यार, शाही पालने जिन पर पक्षियों,हाथियों और परियों की आकृतियों से सजावट की हुई है, इसके अलावा शाही गहने, वेशभूषा और पोशाक,विभिन्न शैलियों के लघुचित्र आदि से संग्रहालय को सजाया गया है।

इस किले में कई भव्य महल बने हुए है जो अपनी अद्भुत नक्काशीदार किवाण और जालीदार खिड़कियों के लिए प्रसिद्ध है। दर्शनीय और उल्लेखनीय महलों में – मोतीमहल, फूलमहल, शीशमहल, सिलहखाना, दौलतखाना आदि है। मोतीमहल- यह किले का सबसे बड़ा महल है जो मोतियों से सजा हुआ है इसमें राजा का दरबार लगता था।

यहाँ 5 जालीदार झरोखे लगे हुए हैं जिनसे रानियों द्वारा दरबार की गतिविधियों को देखा जाता था।फूल महल- यह राजा का निजी कक्ष हुआ करता था। शीशमहल- इस महल को विभिन्न प्रकार के शीशों द्वारा सुन्दर नक्काशी करके सजाया गया है। इस किले में पुरानी तो’पों का भी संग्रह है जिनका युद्ध के दौरान प्रयोग किया जाता था। इन तो’पों में प्रमुख है- गजनीबाण तो’प, किलकीला, शंभूबाण, कड़क, बिजली आदि तो’प सम्मिलित है। राव जोधा द्वारा मेहरानगढ़ के समीप ही 1460 में चामुण्डा देवी की मूर्ति स्थापित की गयी और मंदिर का निर्माण करवाया गया। चामुण्डा देवी राजपूत राजाओं की इष्ट देवी के रुप में जानी जाती हैं। प्रत्येक वर्ष नवरात्रि के दिनों में यहाँ पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है। इस तरह यह मेहरानगढ़ दुर्ग भारत के प्राचीनतम किलों में से एक है जो अपने समृद्धिशाली गौरव के अतीत का प्रतीक है।

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