मीरा बाई के जीवन की कहानी, परिवार ने रचे षड़यंत्र और कैसे!! मीरा कृष्ण मूर्ति में समा गयी

मीराबाई एक मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवयित्री और महान कृष्ण भक्त थी। मीरा बाई 16 वीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय भक्ति संतो में से एक थी।उनके भजन भगवान श्री कृष्ण को समर्पित थे जो आज भी उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय है और श्रद्धा एवं भक्ति के साथ गाये जाते हैं।

मीरा द्वारा रचित 4 प्रमुख ग्रंथ –

• बरसी का मायरा
• गीत गोविन्द टीका
• राग गोविन्द
• राग सोरठ के पद

मीरा के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रंथ में किया गया है।

मीरा बाई का जन्म लगभग 1498 ई. के आसपास राजस्थान में पाली जिले के कुड़की गाँव में हुआ था। मीरा के पिता रतन सिंह राव दूदा के चौथे पुत्र और मेड़ता के महाराजा के छोटे भाई थे और इनकी माता का नाम वीर कुमारी था। मीरा अपने माता पिता की इकलौती संतान थी। मीरा जब छोटी थी तब उनके माता का देहांत हो गया था और उनका लालन पालन उनके दादा राव दूदा की देखरेख में हुआ। उनको बचपन में संगीत, धर्म, राजनीति, प्रशासन जैसे विषयों की शिक्षा प्रदान की गयी थी। घर में साधु संतो का आना जाना लगा रहता था इसी कारण मीरा बचपन से ही साधु संतो और धार्मिक लोगों के संपर्क में आती रही।

बचपन से ही मीरा का मन कृष्ण भक्ति में रम गया था। बचपन में घटित हुई एक घटना से मीरा का कृष्ण प्रेम और अधिक प्रबल हो गया था। बालपन में जब एकबार किसी बारात को देखकर मीरा ने अपनी माता से प्रश्न किया कि मेरा दूल्हा कौन है? तब माता ने मीरा के बालमन की जिज्ञासा को टालने के उद्देश्य से भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति की तरफ इशारा करते हुए कह दिया कि यही तुम्हारे दूल्हा है। यह बात मीरा के बालमन में इतनी गहराई से बैठ गयी कि वे श्री कृष्ण को ही अपना पति समझने लगी।

जब मीरा बड़ी हुई तो श्री कृष्ण को पति मानने के कारण किसी और से विवाह नहीं करना चाहती थी लेकिन परिवार के लोगों ने उनकी इच्छा के विरुद्ध जाकर उनका विवाह 1516 में मेवाड़ के सिसोदिया राजपरिवार में मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र राजकुमार भोजराज के साथ कर दिया।

विवाह के कुछ वर्ष पश्चात ही 1521 में मीरा के पति की मृत्यु हो गई और तत्कालीन समाज में प्रचलित प्राचीन मान्यता के अनुसार पति की मौत के बाद मीराबाई को परिवार के लोगों द्वारा सती करने का प्रयत्न किया गया लेकिन मीराबाई इसके लिए तैयार नहीं हुई। पति की मृ’त्यु पर भी मीरा ने अपना श्रृंगार नहीं उतारा था क्योंकि वह मन से गिरधर को ही अपना पति मानती थी।

पति की मृत्यु के पश्चात मीरा की कृष्ण भक्ति दिनों दिन बढती ही गयी। मीरा कृष्ण की मूर्ति के सामने घंटो तक अपनी सुध बुध खोकर नाचती रहती थी। ससुराल पक्ष ने कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनूकूल नहीं माना क्योंकि उनके अनुसार एक राजपूत विधवा स्त्री का साज श्रृंगार करके लोगों के समक्ष सुध बुध खोकर नृत्य करने को वे लोग अपनी शान के खिलाफ समझते थे और इसलिए मीराबाई को रोकने के लिए उन पर अत्याचार किये गये। समाज के विरुद्ध जाकर मीराबाई द्वारा उठाये गए कदम उनके पति के परिवार को अच्छा नहीं लगा इस कारण परिवार ने कई बार मीरा को वि’ष देकर मार’ने की कोशिश भी की लेकिन हर बार मीरा बच गयी। परिवार के अत्याचार से विरक्त और परेशान होकर मीरा वृंदावन चली गयी और कृष्ण भक्ति में जोगण बनकर साधु संतो के साथ रहने लगी।

वहाँ मीरा ने संत रविदास को अपना गुरु माना। यह बात भी लोगों को पसन्द नहीं आयी क्योंकि संत रविदास तथाकथित रूप से छोटी जाति के माने जाते थे और मीरा एक राजघराने से ताल्लुक़ रखने वाली राजपूत स्त्री थी। इस प्रकार मीरा ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में समाज द्वारा बनाये गये सामाजिक कुरीतियों और परम्पराओं को चुनौती देती रही और समाज के प्रति बनाए नियमों से लड़ती रही।

इसके बाद मीरा द्वारिका चली गई और वहाँ कृष्ण मंदिर में रहकर भक्ति करने लगी। मीराबाई अपने इष्टदेव कृष्ण की उपासना प्रियतम या पति के रुप में करती थी। लोकमान्यताओं के अनुसार जीवन भर कृष्ण भक्ति करने के कारण लगभग 1547 के आसपास मंदिर में भक्ति करते करते ही मीरा कृष्ण मूर्ति में समा गयी।

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