मनुष्य के मानव बनने का सफ़र ही जीवन है।

‘बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।’

तुलसीदास कहते हैं कि बड़े भाग्य से हमें यह मनुष्य शरीर प्राप्त होता है, यह मानव शरीर देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। इस दुर्लभ योनि में जन्म लेकर सिर्फ़ ‘खाओ, पियो और मौज करो’ की वृत्ति रखना इसका अपमान है। इस वृत्ति से आगे बढ़कर मानव बनने की चेष्टा करना ही सच्चा जीवन है।

मानव बल, बुद्धि और भावों का समन्वय है। बल और बुद्धि का विकास मनुष्य जाति में पुरातनकाल से होता चला आ रहा है। किन्तु भावों का विकास एक ही जीवनकाल में होता है। मनुष्य से मानव बनने के सफ़र के दो पहलू हैं। पहला, मनुष्य के अस्तित्व में आने से लेकर आधुनिक मानव के विकास तक। दूसरा, मनुष्य के जीवनकाल में उसके मानव बनने का सफर।

पहले, प्रथम पहलू की बात करते हैं। जब से पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व मिलता है तब से लेकर उसके आधुनिक मानव स्वरूप में आने तक को एक जीवन कहा जा सकता है।

अगर भाषिक और शाब्दिक ज्ञान की दृष्टि से देखें, तो मनुष्य और मानव दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची प्रतीत होते हैं। किंतु इनको समानार्थी कहना ज़्यादा उचित होगा। अगर एक वृहद तस्वीर खींचने की कोशिश करेंगे, तो मनुष्य और मानव के बीच की अदृश्य रेखा, स्पष्ट दिखायी देने लगेगी।

‘मानव क्या है, एक माटी का पुतला’

इस पंक्ति की व्याख्या करेंगे तो पाएँगे, यदि समाज और सम्बन्ध न हों तो मानव माटी का पुतला भर ही है यानी मनुष्य। आदमी और इंसान में जो फ़र्क है वही मनुष्य और मानव में। आदमी के धरती पर प्रादुर्भाव के बाद, धीरे-धीरे उसका विकास होता गया। अग्नि की खोज हुई। पहिया, औजार का अविष्कार हुआ। धातु की खोज हुई। मनुष्य ने समूह में रहना शुरू किया। उसने कृषि अपनायी। सभ्यताएँ बनने लगीं। बाजार प्रक्रिया शुरू हुई। मुद्रा अस्तित्व में आयी। शहर और गाँव बसने लगे। शासन प्रणाली सामने आयी। मनुष्य स्थायी तौर से एक जगह रहने लगा। परिवार इकाई का जन्म हुआ। मनुष्य को मानव बनाने में परिवार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यह एक पहलू है। जहाँ, मनुष्य के अस्तित्व में आने से लेकर उसे आधुनिक स्वरूप मिला।

अब सबसे महत्वपूर्ण और दूसरा पहलू। कबीर कहते हैं –

“‘चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय।
दुइ पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोय॥'”

और कबीरदास के सुपुत्र कमालदास कहते हैं

‘चाकी-चाकी सब कहे, और कीली कहे न कोय।
जो कीली से लागि रहे, बाको बाल न बाका होय।।’

यानी इस संसार रूपी चक्की में इधर-उधर भागने के बजाय एक जगह ध्यान लगाकर अंतर्मन की शक्ति को पहचानने वाला स्थितिप्रज्ञ रहता है। जो चक्की की कीली से लगा रहता है वही गेहूँ बचा रह जाता है। इसलिए मनुष्य को अपने अंतर्मन से लगा रहना होगा। तभी वह स्थिर और शान्त रह पाएगा। स्थिर और शान्त मनुष्य ही मानव बनने की राह पर अग्रसर हो पाता है।

मनुष्य होना बहुत आसान है। किन्तु मानव बनना बहुत कठिन। मनुष्य नित्यकर्म करता है। खाता है। सोता है। किंतु मानव, इससे बहुत आगे की बात है।

‘वास्तव में कुछ मनुष्य, मानव बनने में ही सबसे ख़राब होते हैं।’

अमेरिकी रैपर स्कॉट मेसकडी के अनुसार मानव अपने प्राथमिक और मूल काम में ही सबसे बेकार प्रदर्शन करता है। वह धन प्राप्ति को प्राथमिकता देता है। भौतिकता और मोह उसके मानव बनने में आड़े आते हैं। किन्तु इन्हीं सबको पीछे छोड़कर मानव बनने का लंबा सफ़र ही जीवन है।

मानव में तीन गुण तो होने ही चाहिए।

मा – मानवता
न – नम्रता
व – वात्सल्य

वृक्ष ख़ुद को आगे बढ़ाने के लिए, एक नहीं, हजारों बीज छिटकाता है। किन्तु सारे बीज उपजते नहीं हैं। वृक्ष के लिए इतना भी बहुत है कि एक बीज उपजे और एक नया वृक्ष पैदा करे। ऐसे ही मानवता का वृक्ष है। यदि उसका एक बीज भी उपज जाए, तो कितने पथिक उसकी छाया में विश्राम कर सकते हैं।

मानवता यानी मन में संवेदना, समानुभूति और अहिंसा का निर्माण। दूसरों के लिए प्रेम भाव। जहाँ यह भाव आये कि सामने वाले से मेरा खून का रिश्ता तो नहीं है, किन्तु खून बनाने वाले का रिश्ता ज़रूर है। जो शक्ति मेरे भीतर बैठकर मुझे चला रही है वही शक्ति सामने वाले को भी चला रही है।

‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो।’

गीता में भगवान कहते हैं, “मैं सभी प्राणियों के हृदय में वास करता हूँ।” इसीलिए सामने वाले को अपने बराबर समझना। उसके दर्द को महसूस करना। उसका दर्द हर लेने की चाह रखना। यही मानवता का गुण है। और संवेदना इसकी पूरक है। दूसरे की चोट को ख़ुद की चोट समझकर उसकी मदद करना। उसके दुःख को अपना दुःख समझना समानुभूति है और मानवता की सीढ़ी।

सुख और दुःख, दोनों मानव में ही निहित हैं। बात इतनी है कि वह किस पक्ष को उभारना चाहता है। बस नज़रिये का फ़र्क है। हमें सुख की तरफ भागना है या दुःख की तरफ जाना है। सुख की तरफ भागना यानी शांति की तरफ भागना। और शांति की तरफ भागना यानी मानवता की ओर चलने की शुरुआत करना। किसी के चेहरे पर मुस्कान लाना। निदा फ़ाज़ली कहते हैं –

‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये’

झुकना, मानव का सबसे बड़ा गुण है। यह झुकना स्वार्थवश नहीं होना चाहिए। निःस्वार्थ झुकना। और इस निःस्वार्थता में सज्जनता होनी चाहिए। सज्जनता और सदाचार मानव के अभिन्न चारित्रिक गुण हैं। सज्जनता, नम्रता का ही एक पहलू है। नम्र मनुष्य, अहिंसक होता है। अहिंसा मानव का वेतन है, जो उसे नम्रता की ऐवज में प्राप्त होता है।

गाँधी अहिंसा को बहादुरी का गुण करार देते हैं। वे कहते हैं, “यह कायरता का कवच नहीं, अपितु बहादुरी का उत्तम गुण है।” मानव अहिंसा के बिना कायर है। और कायर अभी मानव नहीं हो सकता।

बाइबिल नम्र मानव के विषय में कहती है, “वो पूरी ईमानदारी के साथ खुद की जाँच करते हैं। अपने बारे में एक सही नज़रिया कायम करने की कोशिश करते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि वे असिद्ध हैं और भगवान के सामने कुछ भी नहीं हैं। यही नहीं, जब वे दूसरों में ऐसे गुण देखते हैं, जो उनमें नहीं हैं, तो वे खुश होते हैं और उन्हें खुद से बढ़कर समझते हैं। इस वजह से वे न तो घृणा करते हैं और न ही अंदर-ही-अंदर कुढ़ने लगते हैं।”

तुलसीदास भी रामचरित मानस में कहते हैं, नम्रता के बिना प्रीति और अहंकार से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

‘प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी।’

मानव में नम्रता का गुण न हो तो वह मानव नहीं कहला सकता। क्योंकि नम्रता; शील निर्माण करती है और शील, नैतिकता व सदवृत्ति को हवा देती है। जिससे मानव में स्वीकारशीलता, सन्तोष और धैर्य जन्म लेता है; जो मनुष्य से मानव बनने के सफर का एक अहम पड़ाव हैं।

वात्सल्य यानी ऐसा प्रेम जैसा मन में बच्चे के लिए उत्पन्न होता है। वैसा प्रेम मानव मन में दूसरे मानव के लिए उत्पन्न होना चाहिए। जिसमें लाड हो। नेह हो। वात्सल्य जुड़ाव का नाम है, जुड़ाव सम्बन्ध का और सम्बन्ध साथ का। वो भी विकासोन्मुख साथ। जो जीवन विकास में मददगार हो।

जीवन विकास यानी मानव में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, प्रेम और ज्ञान के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हो। उसमें इस संसार को पकड़कर चलने के समानांतर, इसे छोड़कर निर्वाह करने का गुण उत्पन्न हो। मानव बनने में सम्बन्ध महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सम्बन्ध न हों, तो भाव नहीं होंगे और भाव नहीं होंगे; तो मनुष्य, मानव हो ही नहीं सकता।

मनुष्य से मानव बनने की जद्दोजहद एक लंबी यात्रा है। हालाँकि इस यात्रा पर कई मनुष्य निकलते ही नहीं और कई निकलकर भी रास्ता भटक जाते हैं। किन्तु कई मनुष्य; मानव बनकर निकलते हैं। जैसे – महात्मा गाँधी, नेल्सन मण्डेला। इन सबमें एक समान बात संघर्ष रही। संघर्ष भी मानव बनने का एक मौका देता है। और जो इन संघर्षों में खड़ा रहा। वह मानव बनकर निकलता है। जैसे नदी पत्थरों से संघर्ष करते-करते, उन्हें काटते, बिना निशान छोड़े अपना रास्ता बनाकर मैदान में उतर आती है। सैकड़ों लोगों को पानी पिलाती है। धरती सींचती है। ठीक वैसे ही संघर्ष में, जो भी मनुष्य नम्र भाव से खड़ा रहता है, मानव बनकर निकलता है। लेकिन आया हुआ नहीं, स्वीकारा हुआ संघर्ष मानव को जन्म देता है।

मानव आता भी अकेला है और अंत में जाता भी अकेला है। इस आदि और अंत के मध्य ही जीवन है। इस जीवन यात्रा की रेलगाड़ी मनुष्य रूपी स्टेशन से छूटती है, कई छोटे-बड़े स्टेशन जैसे- मानवता, नम्रता, वात्सल्य, सम्बन्ध, भाव, संघर्ष आदि से गुजरते हुए मानव रूपी गन्तव्य पर आकर खत्म होती है।

यह मनुष्य होने और मानव बनने के बीच का लम्बा सफ़र ही जीवन है।

परिचय :-

अनुभव कवि : गद्यकार व स्वतंत्र फ़िल्मकार हैं।वे इस समय माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल से मीडिया मैनेजमेंट में एमबीए कर रहे हैं।

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