मेरा बचपन : डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

पिछले दिनों किसी सिलसिले में अपने अतीत के पन्ने पलटे तो बहुत सारी स्मृतियां चहलकदमी करने लगीं. मेरा जन्म उदयपुर में हुआ और वहीं सारी शिक्षा भी हुई. बहुत रोचक बात यह कि मेरा परिवार व्यवसायी परिवार था और मेरे माता पिता की तमन्ना यही थी कि मैं बड़ा होकर उनके व्यवसाय को आगे बढ़ाऊं. लेकिन यह नहीं होना था. जब मैं दसवीं में पढ़ रहा था तभी मेरे पिता का निधन हो गया. जैसे-तैसे मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की और फिर स्थितियां ऐसी बनती गईं कि मैं व्यवसाय की बजाय सरकारी नौकरी की दुनिया में आ गया. मेरे परिवार में शायद ही किसी ने सरकारी नौकरी की हो. लेकिन यह सब तो बाद की बात है. आज कुछ और मज़ेदार बातें याद आ रही हैं:

मेरी दुकान केवल घड़ी साज़ी की ही दुकान नहीं थी. असल में मेरे पिता बहु धंधी थे. शायद यह उनकी व्यावसायिक ज़रूरत भी रही होगी और क्षमता भी. वे घड़ियों के व्यापार के साथ-साथ उनकी रिपेयरिंग तो करते ही थे, ग्रामोफोन, ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स, वाद्य यंत्र और उनकी सहायक सामग्री, यहां तक कि लॉटरी टिकिट्स का व्यवसाय भी करते थे. इनके अलावा वे चश्मे भी बनाते-बेचते थे और नकली दांत भी बेचते-लगाते थे. चश्मे और दांत के अलावा उनके सारे काम थोड़े बहुत मैंने भी ज़ारी रखे.

उन दिनों उदयपुर में वाद्य यंत्रों और उनके साजो-सामान की दुकानें नहीं के बराबर थीं. इसलिए उन्हें खरीदने और उनके लिए ज़रूरी सामान जैसे सितार या वॉयलिन के तार वगैरह के लिए शहर भर के कलाकार मेरी ही दुकान पर आते थे. मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरी उस दुकान पर राम लाल माथुर जी का खूब आना-जाना था. तब वे उदयपुर के नामी संगीतकार थे और बाद के वर्षों में उन्होंने राजस्थानी गीतों के मौलिक व सुरीले संगीतकार के रूप में खूब ख्याति अर्जित की. उसी ज़माने में दुकान पर आने वाले बहुत सारे कलाकारों में से एक कलाकार की हमारे यहां नियमित बैठक-सी होने लगी थी. वे (तब) सितार-वादक के रूप में जमने के लिए प्रयत्नशील थे.

उनकी स्थायी वेशभूषा थी सफेद कुर्ता पायजामा. उनका नाम था फ़रीदुद्दीन डागर. बाद में वे भोपाल चले गए और ध्रुपद के नामी कलाकार उस्ताद ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर बने. आज मुझे गर्व होता है कि जब मैं दुकान पर बैठता था, वे प्राय: अपनी सितार के लिए तार खरीदने मेरी दुकान पर आते थे और वहां मेरा संरक्षण करने वाली मेरी मां से दुख सुख की बातें करते थे. मुझ पर उनका खूब स्नेह था. बहुत तमन्ना थी कि कभी उनसे आमना-सामना हो तो उन दिनों की याद दिलाऊं, लेकिन मेरी तमन्ना पूरी हो पाती इससे पूर्व ही वे अल्लाह को प्यारे हो गए!

और जब मरहूम फ़रीदुद्दीन डागर साहब और उनकी सितार को याद किया तो अनायास एक और प्रसंग याद आ गया. बात शायद 1961 या 1962 की है. मैं एमबी कॉलेज उदयपुर में बीए प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था. मेरे सहपाठियों में से एक का नाम अरविंद सिंह था. बेशक कभी उनसे संवाद नहीं हुआ, लेकिन यह बात हम सबको मालूम थी कि वे उदयपुर राजघराने के चश्मो-चिराग़ हैं. तत्कालीन महाराणा भगवत सिंह के सुपुत्र. अब तो वे अर्थात अरविंद सिंह स्वयं महाराणा मेवाड़ हैं. उनका महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन हर बरस कई महत्वपूर्ण पुरस्कार देता है. तो इन्हीं अरविंद सिंह से जुड़ा है यह प्रसंग. शायद कॉलेज का वार्षिकोत्सव था.

अरविंद सिंह ने उस आयोजन में सितार वादन प्रस्तुत किया था. यह आयोजन हुआ था एमबी कॉलेज के मुक्ताकाशी रंगमंच पर. विद्यार्थियों का कार्यक्रम हो और उसमें हूटिंग न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? अरविंद सिंह ने सितार पर आलाप पूरा किया ही था कि श्रोताओं की भीड़ में मौज़ूद किसी मनचले ने बाआवाज़े बुलंद एक फब्ती कसी- “शाबास बेटा! ऐसे ही बजाते रहे तो कमा खाओगे!” याद नहीं कि उस दिन अरविंद सिंह ने अपना वादन पूरा भी किया या नहीं, लेकिन उस दिन के बाद मैंने कहीं पढ़ा सुना नहीं कि अरविंद सिंह सितार बजाते हैं!

(नोट: इस शीर्षक का कृष्ण बलदेव वैद के इसी शीर्षक वाले उपन्यास से कोई सम्बंध नहीं है!)

डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ‘मण पढ़ने कण लिखने’ वाले लेखक हैं।मूलत: कथालोचक डॉ. अग्रवाल कॉलेज शिक्षा में लंबे अरसे तक रहे हैं।वर्तमान में वे जयपुर में रहते हैं।

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