कैलाश मनहर की कविताएँ

इस मौजूदा अपसंस्कृतिक समय में कैलाश मनहर मुझे ठोस, व्यापक और आधार थंब के सांस्कृतिक प्रतिबद्ध लोकपक्षधर कवि के रूप में मानवद्रोही तत्वों के सामने प्रतिरोधक बैरीकेड की मजबूती और सतर्कता से खड़े नजर आते हैं। अंतर्द्वंद्व का बहुत महीन, तीखा मगर सघन स्तर, कालांतर में वैचारिक टकराहट के बाद कविता की आत्मा बन जाता है। गहन विश्लेषण के बाद लगता है जैसे सतही या औसत तो बिल्कुल ही नहीं, गंभीर भिन्नता होते हुए भी काव्य चेतना का गहरा और गंभीर वैचारिक धरातल, प्रतिबद्धता और सरोकारों का जुड़ाव, कविता को उसकी उसी मौलिकता में लेकर आने और साहित्यिक रूपों व धुनों का प्रयोग भी इनके उसी लोक रंजकीयता और सरोकारों के कंसेप्ट के जीवन के जरूरत के अनुसार होता है। द्वंद्व को निदानात्मक प्रयोग से सहज इस वैज्ञानिक तरीके के साथ, काव्यगत बदलाव अगर कैलाश मनहर करते, तो कविता का यह कुदरती रूप बिगड़ जाता। इसके अलावा उनकी कविताओं का लोकरजंकीय स्वर भी बहुत ज्यादा सघन और ठहरे भाव अधीन उन्नत रूप में आता है। इसीलिए तो युवा कविता पीढ़ी उन्हें कविता का रमता जोगी या फकीराना दरवेश के अलंकारो से अलंकृत करती है।

~सतीश छिम्पा

कविताएँ –

1.(एक)-मृत्यु समय
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मृत्यु नाच रही है मुल्क में चारों ओर
शहर-शहर गाँव-गाँव
सड़क-सड़क गली-गली
मृत्यु दबोच रही है लोगों को
बालक वृद्ध नवयुवक
अकाल मृत्यु से मर रहे हैं स्त्री-पुरुष

अस्पतालों में जगह नहीं है और
चिकित्सकों ने हाथ खड़े कर दिये हैं
औषधियाँ उपलब्ध नहीं है कहीं

प्राणवायु तक नहीं मिल पा रही
और कीड़े-मकौड़ों की तरह मर रहे हैं लोग

राजा बनवा रहा है नया महल कि
पुराना महल रास नहीं आ रहा राजा को

मृत्यु नाच रही है मुल्क में और
राजा को चिन्ता है अपने ग़ैरकानूनी
सबूतों को सुरक्षित रखने की अभी
नहीं है उसकी सत्ता को ख़तरा

मृत्यु नाच रही है मुल्क में और
राजा के गुणगान कर रही है ग़ुलाम प्रजा

(दो) –बस रात
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दिमाग़ सुन्न है
पर सोच क्या रहा हूँ मैं
बात कुछ भी नहीं
तो दिल में खलबली क्यों है?

बहुत हैं काम पर
करने का मन नहीं है क्यों
सोना चाहता हूँ तो
क्यों नींद नहीं आती है?

सवाल पूछता जाता हूँ
अपने आप से मैं
जवाब सब के नदारद हैं
बहुत दूर तलक़

आजकल वक़्त से
टूटा हुआ है याराना
बेवज़ह
ग़म से मुझे
इश्क़ हुआ लगता है

सुब्ह दोपहर और शाम
गुज़र जाती हैं
रात है रात बस
कि और कुछ नहीं जैसे

(तीन)-न कह सकने का दुख
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कुछ भी तो दुख नहीं था उसे
किन्तु सुख कहाँ था जैसा वह चाहता था
समय पर भोजन-पानी मिल जाता था
ऋतुओं के प्रभाव शरीर पर
न डाल सकने वाली व्यवस्थायें थीं
जब चाहे सोता और जागता था

कुछ भी तो दुख नहीं था उसे
किन्तु सुख कहाँ था जैसा वह चाहता था

वह बात करना चाहता था किन्तु
सब इतने व्यस्त रहते थे कि
किसी के पास फुर्सत नहीं थी और
उसकी तमाम बातें अधूरी सुनी जातीं थीं

कोई भी बात पूरी न सुना पाना
उस समय दुख नहीं कहा जाता था
सिर्फ़ बात न सुना पाना भी क्या कभी
दुख की श्रेणी में माना जाता है

वह डरा-डरा-सा रहता था अक्सर
चिन्ताओं से घिरा रहता था हरेक की
और जिनकी चिन्ताओं से वह घिरा रहता था
वे सब उसे ढाढ़स देते रहते थे कि
वह अकारण चिन्ता करना छोड़ दे

इसीलिये कहा मैंने कि कुछ भी तो दुख
नहीं था उसे कि आख़िर
जो कहा जाना है
वह न कह सकना भी कोई दुख है भला

(चार)–वे चाहते हैं बस अपना होना
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उन्हें चाँद बहुत पसंद है और
सूर्य-प्रार्थना तो वे प्रतिदिन करते हैं

चाँद के पास वाला सितारा तो
जैसे उनके प्राणों में बसता है तथा
फूल भी उन्हें बहुत पसंद हैं
कमल हो या गुलाब या गैंदा
अथवा चम्पा-चमेली हो या पलाश

वे बहुत प्रेम करते हैं अपनी स्त्रियों से
और उनसे पैदा हुये
बच्चों में ही उनकी जान है

किन्तु ग्रहण लगे चाँद की तरफ़
वे देखते भी नहीं और
सूर्य जब धूप बरसाता है आग की तरह
तो बहुत बुरा लगता है उन्हें कभी-कभार
चाँद के पास वाला सितारा
यदि कुछ धुँधला पड़ने लगता है तो भी वे
सितारे के बारे में नहीं बल्कि अपने
भविष्य के बारे में ज़्यादा सोचते हैं

मुर्झाये हुये फूलों को फेंक देते हैं बाहर
और महिने के उन चार दिनों में
अस्पृश्य मानते हैं
अपनी स्त्रियों को जबकि बच्चे यदि
उनकी इच्छा में ही नहीं समझें
अपनी इच्छा तो प्राय:
बहिष्कृत कर देते हैं उन्हें अपने घर से

ओह उनकी पसंद और उनका प्रेम
और प्रार्थनायें
कवि के पास चले आते हैं प्राय:
उनकी चुगली करने कि
बस हर चीज़ और हर समय में
चाहते हैं वे बस
खुद का होना यथासंभव नियमानुसार

(पाँच) –विरोधाभास
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बहुत विरोधाभास है
और आश्चर्य भी कि तुम
जल और आग
या कि धरती और आकाश
अथवा प्रेम और घृणा में
साथ बने रहते हो

तट पर खड़े
तालियाँ भी बजाते रहते हो और
मँझधार में भी डूब रहे होते हो
उसी वक़्त तुम
प्रयोगशाला में वैज्ञानिक
और यज्ञशाला में याज्ञनिक बने कभी
पाँव की जूती और
सिर-शिखा को बनाये रहते हो
विवाद का विषय

तुम ईश्वर तो नहीं हो सकते कि
कर ही न सको स्पष्टत:
अच्छे-बुरे या
आवश्यक-अनावश्यक में भेद
या कि सच को सच
और झूठ को झूठ न कह सको

फिर कौन हो तुम
इतने पाखण्डी और करिश्मेबाज़
घृणित शैतान की तरह मानव-शत्रु
जो अक्सर पैदा होता है
पूँजी और धर्म के सहवास से
नाज़ायज संतान-सा

(छह)अजातशत्रु नहीं हूँ मैं
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आधार कार्ड में
अँगूठे के प्रिन्ट स्पष्ट न आने के कारण
वह राशन डीलर
उस गरीब वृध्दा को गेहूँ नहीं दे रहा था
और मैनें उससे झगड़ा कर के गेंहूँ दिलवाये
कि वह राशन डीलर
मेरा शत्रु हो गया

तहसीलदार नहीं बना रहा था
उस खानाबदोश बंजारे का निवास प्रमाण-पत्र
जो दो साल से रह रहा था हमारे ही गाँव में
और तहसीलदार से लड़-भिड़ कर मैनें
प्रमाण-पत्र बनवाया उस बंजारे का कि
वह तहसीलदार मेरा शत्रु हो गया

वह प्रधान नहीं बता रहा था
पार्क बनवाने में हुये खर्च का सही हिसाब
कि मैनें उससे हिसाब लिया और
सामाजिक अंकेक्षण में पकड़ा गया
पूरे पचपन हज़ार का घपला कि
वह प्रधान मेरा शत्रु बन गया

वह फैक्ट्री-मालिक
पूरा वेतन नहीं दे रहा था मज़दूरों को
और उससे लड़ कर मैनें
पूरे तीन सौ रुपये रोज़ाना के
दिलवाये सभी मज़दूरों को कि
वह फैक्ट्री-मालिक
मेरा शत्रु हो गया

वह अखबार
झूठी और पक्षपातपूर्ण खबरें छापता था अक्सर
कि मैनें पूरे कस्बे में
उस अखबार का बहिष्कार करवा दिया
और अखबार का ब्यूरो चीफ़ और सारे पत्रकार
मेरे दुश्मन हो गये

वह स्वयंभू आलोचक
बेकार-सी कविताओं पर लिखता था
सात-सात पृष्ठीय समीक्षायें
कि मैनें उस आलोचक को एक दिन
फटकारते हुये पत्र लिख दिया और
वह आलोचक
मेरा शत्रु हो गया

जातिगत संगठन के प्रमुख ने लगा दिया
अन्य जातियों के साथ
परस्पर मेलजोल पर प्रतिबंध
तो मैनें उसे भरी सभा में
तर्कों सहित लताड़ दिया
कि वह जाति-प्रमुख मेरा शत्रु हो गया

शहर के गुण्डों और पुलिस के बीच
साँठगाँठ को लेकर
मैनें पोस्टर चिपकाये
शहर की दीवारों पर कि
लगभग सारी कोतवाली
और अधिकाँश गुण्डे मेरे शत्रु हो गये

ऐसे ही पता नहीं
कितने कितने शत्रुओं के होते हुये
कभी डरते हुये तो
कभी निडरता दिखाते हुये
और कभी छुप-छुप कर रहते तो
कभी तन कर निकलते हुये
यों ही बिता लिये
जीवन के सड़सठ वर्ष
बहुत से शत्रु पालते हुये
अपनी आदत के कारण

जबकि अजातशत्रु होना
अभी तक भी माना जाता है
व्यक्ति का सकारात्मक गुण
तो मेरे मित्रों!मेरे परिचितों! मेरे शुभचिन्तकों!
मैं नकारात्मक ही भला
कि नहीं बन सका अजातशत्रु

(सात) –हम लिखेंगे
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हम लिखेंगे अपने समय के अँधेरे
जिन्हें अपने सीने में दबा कर रखा हुआ है हमने
अपने हिस्से की रौशनी के निमित्त
जीवित रखेंगे हम अँधेरी कोठरी की ताख पर
अपने भविष्य के दुर्दमनीय स्वप्न

हम लिखेंगे महामारी के समय में
आम लोगों के लिये ज़रूरी प्राणवायु को
संगृहीत करने वाले दुष्टों को पकड़ने में नाकाम
और झूठे भाषण देने वाले सत्ताधीशों का
घिनौना चरित्र और पूँजीवादी विकास का सत्य
हम लिखेंगे मृत्यु के बीच उमगती हुई
जीवन की असीमित सम्भावनायें

हाँ साथी हाँ
हम लिखेंगे हत्यारी व्यवस्था के रहस्य और
उसे नष्ट करने को तत्पर अपना साहस हम
ज़रूर लिखेंगे

हमारी जीवित उम्मीद कोई कौने में दुबका हुआ
कचरा बिल्कुल नहीं है जिसे कि
बुहार कर फेंकने का अपराध करें हम जान-बूझ

हमारी उम्मीद वह सदाबहार है जो
हर मौसम में खिला रहता है अपनी दीप्त आभा लिये
उसे निग़ाहों से सहलाते रहेंगे हम
कि अगली बारिश तक बिखर जायें सैकड़ों बीज
हमारी पीढ़ियों की उपजाऊ मिट्टी में हमारी उम्मीद
सदाबहार की तरह पनपेगी स्वत:

हम अपना समय लिखेंगे साथी
सत्ता के हज़ारों हज़ार प्रतिबन्धोंं के बावज़ूद
और हमारे ही बीच छिपे कपटी
सत्ता के अँधभक्तों की बहुसंख्या के बावज़ूद
हम अपना समय ज़रूर लिखेंगे

कैलाश मनहर जयपुर के शाहपुरा से हैं।उनके कई कविता संकलन प्रकशित हो चुके हैं।राजस्थान द्वारा कन्हैया लाल सेठिया जन्म शताब्दी सम्मान,राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,श्री डूँगरगढ़ द्वारा डॉ.नन्द लाल महर्षि सम्मान एवं कथा संस्था जोधपुर का द्वारा नन्द चतुर्वेदी कविता सम्मान भी उन्हें प्राप्त हैं |आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से भी प्रसारण।देश के अधिकतर पत्र -पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित।

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