डायरी अंश : माधव राठौड़ “रेगिस्तान के अधबीच में”

[2 जनवरी 2014]

नया साल शुरू हो गया | बेरोजगारी के बादल छँट नहीं पा रहे हैं | मैं खाली हाथ गाँव लौटना नहीं चाहता हूँ | अभावों से भरे इस रेगिस्तान में उम्मीद के सिवाय कुछ उगता नहीं | बळबळते थार में अकाल और उम्मीद के बीच हमेशा ठनी रहती है |

पिछले बरस जमाना नहीं था, अकाल पड़ गया, खाने लायक बाजरा नहीं हुआ, न हीं पशुओं के लिए चारा | मीठे पानी के टांकों में एक हाथ भर पानी बचा है | मई जून के तपते तावड़े खारे पानी से कैसे कटेंगे ?

इधर मैं तीसरी बार जज की परीक्षा में फेल हो गया | घर ही नहीं पूरे गाँव को उम्मीद थी इस बार मैं जज बन जाऊँगा | जयपुर के इस वन रूम फ्लेट में ताफड़े तोड़ रहा हूँ |

[23 फरवरी 2014]

रेगिस्तान में बचा कर रखी जाने वाली चीज है तो वह है – चूल्हे में आग

माँ हर बार होलिका-दहन में जाते वक्त कहती है कि आते वक्त होली की आग लेते आना |

यहाँ ताउम्र संघर्ष की आग और चूल्हे की आग दोनों ही मद्धम जलती रहती है |

[13 मार्च 2014]

आज क्लास की छुट्टी थी तो दोस्त के साथ वर्ल्ड ट्रैड पार्क की तरफ आ गया | गाँव से जब जयपुर आया था तो दोस्तों से सुना था कि जी.टी. और डब्ल्यु.टी.पी. में जेन्ट्री आती है | कई दिनों बाद इस शब्द का पता चला कि इसका मतलब भद्रलोग होता है | हम देर तक भद्रलोगों को देखते रहे | महंगी लम्बी गाड़ियों से छोटे कपड़े पहनी होंठ रंगी जेन्ट्री को हम रेगिस्तानी गंवई देखते ही रह गये | ब्रांडेड शोरूम में कपड़ों पर लगे टैग देखकर हम समझ गये जेन्ट्री का वास्तविक मतलब क्या होता है | वहाँ के मेक-डी और सीसीडी से आती गंध से बेहाल हो हम जल्द सरस पार्लर में छाछ पीकर कुछ शांत होकर बापू बाजार में लगी कपड़ों की सेल देखने चल दिए |

[2 जून 2014]

48 डिग्री तपते रेगिस्तान में सायं-सायं करती बलबलती लू में कुछ भी साबुत नहीं बचता, आकड़े तक सूख जाते हैं | खेजड़ी की तीतर छाया भी गाय को घड़ी भर रोक नहीं सकती | नाडी का पैंदा सूख कर धरती को चीर रहा है | प्यासे हिरण थक कर कुत्तों के आगे घुटने टेक देते है | इन सबके बीच में भी फोग अपने को हरियाय रखता है और ऊँट अपने भीतर इतना पानी भर कर रखता है जब चाहो इस रेगिस्तान में जहाज की तरह मदद करने को तैयार रहता है |

[11 जुलाई 2014]

मेरी जींस पेंट में लगे भुरन्ट को निकालते हुए उन्होंने कहा था –“दुनिया में जहाँ भी रहो उस जगह की प्रकृति के साथ मत खेलना |”

मैं उनकी पगथळियों की फटी बिवाई को देखता हुआ सोच रहा था कि देह से परे आत्मा है जो शायद मुक्त है तमाम ज्ञान के बन्धनों से |

[20 अगस्त 2014]

आज बहिन राखी पर गाँव आई हुई है | घर पर मेहमान आये हुए थे | मैंने मटकी से पानी को लोटा भरकर उन्हें पकड़ाया तो सभी ने कहा कि खारा पानी क्यों पिला रहे हो ?

शहर जाकर मटकी में भेद करना भूल गया हूँ | पीढ़ियों से घर पर दो मटकी रखी जाती रही एक मीठे पानी की – जो चाय बनाने और पीने के लिए और दूसरी – हाथ और बर्तन धोने के लिए |

जहाँ चीजों का अभाव होता है वहाँ उन्हें बड़े ही सहेज कर रखा जाता है | रेगिस्तान में पानी घी से भी ज्यादा मूल्यवान है इसलिए इसे यहाँ तालों में बंद रखा जाता है | मुझे अनुपम मिश्र की किताब“ आज भी खरे है तालाब ”की याद आती है | आज जल सरंक्षण के नाम पर कितना लिखा और बोला जा रहा है लेकिन न तो शहरों में और न हीं बड़े बांधों में पानी को रोकने के लिए कोई प्रभावी और दीर्घगामी योजना दिख रही है | हर साल यूँ ही पानी बह जाता है , हर साल शहर पानी में डूबते दिखाई देते है , नदियाँ उफान पर होती है मगर बारिश के मौसम के खत्म होने के साथ ही बारिशी मेढकों के साथ जल स्वावलम्बन भी विदा ले लेता है |

[27 अगस्त 2014]

डॉ. कलाम जब बाड़मेर आये थे तब उन्होंने बाड़मेर के दो गाँवो के खारे पानी के सार्वजनिक कुओं पर मीठा पानी फ़िल्टर करने की मशीन लगाने की बात कही थी | उन दो गाँवों में से एक मेरा गाँव भी था | इस बार गाँव गया तो देखा कि पापा की हिसाब डायरी में वो न्यूज़ कटिंग आज भी सुरक्षित पड़ी है |

मुझे उस छोरी को कहा गया वाक्य याद आ गया –“ रेगिस्तान वो खेत है जहाँ सिर्फ उम्मीदें बोई जाती है …”

[5 अक्टूबर 2014]

लम्बे अरसे बाद जयपुर से गाँव लौटा हूँ | आज दिन में बिलौने की छाछ पीकर देर तक सोता रहा | चार बजे माँ ने कहा कि गाय को तळे (कुएँ) पर पानी पिलाकर ओरण में छोड़ आ | गाँव के इस सार्वजनिक कुएँ से खारा पानी ही निकलता है | कहते हैं इसे राजा सगर के बेटो ने अपने पिता को रोज नए कुएँ का जल पिलाने के नियम की कड़ी में बनाया था | 1992 से पहले यहाँ चड़स और रहट से पानी निकालते थे | गाय पानी पीकर जोगमाया के ओरण की तरफ चल दी | मैं इस कुएँ की जगत पर बैठकर लोगों को देख रहा हूँ | पणिहारीयां खारा पानी अपनी मटकियों में भर रही है, कुछ लोग गधे और ऊँट पर रखी पखाल में पानी भर रहे है,एकाध ट्रेक्टर भी पानी टंकी भरने के इंतजार में खड़े है |

जेठो बा मुझे पूछते हैं- “तेरी नौकरी कब लगेगी ?”

“ जल्द ” मैं मुस्कुरा के कहता हूँ और धीरे से उस कुएँ के भीतर झाँकता हूँ जो आसपास के 5 गाँवों की प्यास बुझाता है।

[7 अक्टूबर 2014]

दुःख हो या सुख

यहाँ के लोगों ने हमेशा समावेशित विकास ही चाहा |

[5 नवम्बर 2014]

नवम्बर के आते ही यह तपता रेगिस्तान ठंडा पड़ने लगता है | यह मई-जून में 45 डिग्री पर तपता है तो दिसम्बर -जनवरी में 10 डिग्री से माइनस की तरफ जमने लगता है | यहाँ दोनों ही स्थितियाँ प्रतिकूल है | शाम होते ही गायें लौट रही है | मैं शेरो बा के पास बैठ कर गाँव के हालचाल पूछ रहा हूँ | 60 पार के कुछेक ही लोग गाँव में बचे है | शेरोबा की आवाज अब ऊंडी हो गई और धीमी भी | मैं उनके चेहरे पर मौत का खौफ़ देख रहा हूँ | उनकी रंगीन पगड़ी खाकी में बदल चुकी है |

मैं उनसे पूछता हूँ “ बा, गाँव में हवा शुद्ध , पीने का बरसाती पाळर पानी, खाने को खेत की देशी बाजरी,काचर और ग्वार फली का साग है और गौरी गाय का घी है, फिर भी गाँव में 80 साल का कोई बचा नहीं है ???

मैं सुनने को अधीर था मगर शेरो बा रोहिड़े के दरवाजे की तरह निश्चिंत…

देर तक अपनी गहरी धंसी आँखों से सुने पड़े गाँव की तरफ देखते हुए बोले – बेटा, इस रेगिस्तान में जहाँ कुछ नहीं पनपता वहाँ खुद के भीतर संवेदना को बचाए हम अकाल के थपेड़े झेलते इतने जिन्दा रहे यह काफ़ी नहीं है |

मैं उनका मुँह देखता रहा , वे धीरे से पगरखी पहन घर की और चल दिए |

[21 दिसम्बर 2015]

रेगिस्तान में सुख हरिण की नाभि की वह गंध है जिसे पाने के लिए ताउम्र ताफड़े तोड़ता रहता है |

परिचय :

माधव राठौड़ हिंदी कवि-कथाकार, सम्पादक हैं।जोधपुर में रहते हैं।उनका एक कविता संकलन और एक कहानी संकलन प्रकशित हो चुका है। उनसे msr.skss@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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