कवयित्री मंजुला बिष्ट की कविताएँ

1.मन-वीथिकाएँ
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कामना है कि सीखती रहूँ
वह सात्विक अभिनय
जो भद्र बना रहे उस क्षण भी
जब मुझे,मेरी अंतिम मृत्यु से पहले
मेरी हत्या की सूचनाएं मिलती रहें
और मैं मृत्युदाता को शाप न देने का पुनः एक कारण खोज लूँ

जब मेरे नगरद्वार पर ही नहीं
चहूँ दिशा स्वघोषित युद्ध के नगाड़े बजते हों
तब,मुझे पैदल ही कई हजार रतजगे करने हैं
जो भेंट करें कुछ कोमल कल्पनाएं
पुतलियों को सुनाएं
कुछ अधिक मनगढंत शौर्य-गाथाएँ
ताकि भविष्य के सम्भावित अँधेरों के भीतर
कुछ जुगनू जीवित रह सकें

स्वदेश दीपक को पिता ने बताया था
“डर सबसे पहले आँखों में दिखाई देता है!”
पढ़कर मैंने फ़ौरन ऑंखें भींच लीं,आखिर
भय छिपाने के स्थान वय के साथ बढ़े ही तो हैं
अब,मुझे उन रहस्यमयी कोटरों की थाह कैसे मिले..
जहाँ दृष्टिविहीन लोगों के जन्मजात भय छिपे पड़े हैं
और भीड़ है कि
उन्हें ठेलते हुए आगे बढ़ जाती है

मेरे शहर भर में
अमरूद की शाही बाड़ियों से
बिकने वाले फल मिठास के लिए खूब मशहूर हैं
मालिन कारण बताती है–
ये मीठी फाँकें रनवासों के घुँघरुओं की धनक हैं
जिन्हें नगरकोटे से बाहर
बगैर मोजड़ियों के अकेले घूमने का बड़ा ही चाव था

पिछोला झील का एक पूरा चक्कर काटते हुए
यह सोचना बहुत रोमांचक है कि
पृथ्वी के दो विपरीत ध्रुवों को छूना इतना भी दुःसाध्य नहीं!
बस,मुझे वामन अवतार विष्णु का स्मरण कर
उनके तीन डग के बीच की दूरी को
पूरा ब्रह्मांड नहीं मात्र मेरा उदयपुर समझना है!

2. सभ्यता
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(सभ्यता-1)

शाब्दिक प्रक्षालनों के इस दौर में
कहीं कोई मुझे असभ्य न पुकार ले
इसके लिए
मैं अपनी दुनिया के व्यवस्थित बाड़े में
बहुत सजग रहती हूँ..

सभ्य-असभ्य घोषित होने की बेचैनियों में
कभी-कभी सभ्यता मुझे
नगर से बाहर किसी उजड़ी बस्ती में मिल जाती है!

जब,वे मुझे हर तरह से निहत्था देख
आँखों ही आँखों में सवाल करतें हैं
फ़िर.. मुझे अकेला छोड़ देते हैं!

(सभ्यता-2)

बघेरे के पीछे हथियार लेकर दौड़ती
सभ्यता के मध्य से कोई एक चिल्लाया
“उसे अकेला छोड़ दो..वह हमला नहीं करेगा!’
फ़िर एकाएक सभ्यता ठिठकी…
साँस रोके औदार्य बनी रही

बघेरे के इस तरह अकेले छोड़े जाने पर
यदि नगर में लोकतांत्रिकता बनी रहती है
तो..
हम उसे भीड़ में क्यों ले आये हैं?

(सभ्यता-3)

भीड़ ने अपने ही जैसे
किसी एक को तत्क्षण अकेला छोड़ दिया था
जो,उसकी तरफ पीठ कर
सड़क किनारे बैठ
बड़ी ही सभ्यता से अपने ईश्वर को पुकारने लगा था

भीड़ को भला
मौन और शांतिपाठ में क्या रुचि!

3. उपस्थिति की टोह
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प्रेम के लौट आने पर
ज़रूरी नहीं कि
वह कुछ अशेष देने आया हो
यह भी तो हो सकता है ;
उसके बाद
आपके भीतर कुछ बचे ही नहीं

हरकारे की बगैर किसी सूचना के
नफ़रत तब ही लौटती है
जब उसे पुख़्ता यकीन होता है ;
कि अभी भी कुछ जगहें हैं
जो तुमने सायास/अनायास ही
सामंजस्य की उम्मीद में रिक्त छोड़ दी थी

बेलौस बतकहियों की फांकाकशी के दौर में
अगर पुराना मित्र मोबाइल के सन्देश-घर से
झाँकने लगे,तो जरूर पलटना
हो सकता है ;
उसे बहुत कुछ कहना हो,सौंपना भी हो कुछ
जबकि तुम्हें सुदूर यात्रा पर जाने की बेहद जल्दी थी

क्वांर के आगमन पर
यदि आसमान एकाएक गड़गड़ा उठे
लौट आए बरखा की छोटी-सरल बूँदें
तो हिसाब करना उस पल का ;
जब सपनों की भरपूर अंगड़ाई प्रतिक्षाओं में थी
और तुम शंकित हो मुख्य द्वार पर ताला जड़ रहे थे

इतिहास को पढ़ते हुए,नये भूखण्ड खोजते हुए
इस शेष जीवन में ;
लौटता कभी भी कुछ सम्पूर्णता से नहीं है
वह बस हमारी जिंदगी में
अपनी उपस्थिति की टोह लेने चला आता है।

4. दुराव
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लौटी या
लौटाई गईं
ब्याही बेटियों के पालकों के दुःख
उन बेटों के पालकों जैसे बिल्कुल नहीं होते
जो रोज़गार खोकर सपरिवार लौटते हैं

बेटियाँ उखड़ी जड़ों के साथ पराई होकर लौटती हैं
बेटे साधिकार थर खड़े अपने पितृ-जड़ों की तरफ!

बेटियों के लौट जाने पर
माँ से बतियाते पिता के पास
जब व्याकरण सम्बंधित अशुद्धियाँ अधिक पाई जाने लगती हैं
तब माँ चोरी-छुपे दौड़ी चली जाती है
गाँव की उस बूढ़ी बुआ के पास ;
जो सोरास से बाँझ घोषित होकर लौटी थी
और अब तक भाईयों के आँगन में
अलगनी पर टँगी उतरन सी झूलती है

कालांतर में
आपस में गुर्राते-झीखते
बूढ़े माता-पिता खोजने लगते हैं
वे कुशल कूट शब्दावली
जहाँ बेटी की वापसी से बदली बयार को
भरसक छिपाया जा सकता है

क्योंकि अंत तलक ..
जो कुछ छिपा रह सकता है ,वही तो बच पाता है।

5. हमारे मध्य
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मैं तुम्हारे व्यस्तम क्षणों में
अनायास एकत्रित हुई वह बूँद हूँ,साथी!
जो आशंकित -पात से गिरकर विलीन हुई थी
तुम्हारे सुदृढ़ अंतस में कहीं
मैं एक सिद्धहस्त चोरनी हूँ
जो गठरी में चुपके से साथ हो लेती हूँ
तुम्हारी कठिनतम भागती हुई यात्राओं में

मैं तुम्हें सुन लेती हूँ
नेटवर्क के उलझते तिलिस्म में भी
जैसे ओस से भीगी घास में पग धरते ही
ओस की आवाज़ सुनाई देने लगती है
मैं घूँट-घूँट पीती हूँ तुम्हारी तृप्ति /गर्व
जब सौपतें हो हर माह
घर-खर्च और अतिरिक्त व्यय भी

मित्रों से दसियों बार कह दूँ
कि तुम प्रेम जताने में गूँगे हो
लेक़िन भीड़ से होकर जब गुजरती हूँ
तुम्हारे मौन प्रेमिल गीत स्पष्ट सुनाई देते हैं
बेसुरे गुंजित होने के बावज़ूद भी

किसी सुबह जब रोक लेती हूँ
सूर्य के अदृश्य वस्त्रों को तुम्हारे मुख पर गिरने से
उस क्षण ;
तुम्हारे मुख पर वह परम शांति पसरी हुई होती है
जो दिन भर डाक बाँट लेने के बाद डाकिये के हिस्से में आती है!

हमारे मध्य
प्रेम के आगत-विगत की राहों पर
अधिकार माँगते और अधिकार लौटाते हाथ लुप्त हैं।

6.आपत्ति पर खेद है
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कवि को आपत्ति है कि
जो पत्थर पर नहीं चढ़ा कभी
वह पहाड़ों पर चर्चा करता है

जिसने कभी नदी का पानी चखा तक नहीं
वह उसकी विलुप्ति की आशंका पर घबराया है

जिसने देखा नहीं जी भर के कभी आकाश को
वह क्षितिज के नये ककहरे को गढ़ना चाहता है

जिसके लिए धरती का अर्थ ‘पर्सनल प्लॉट’ रहा हो
वह सरहदों की निर्मम शहादतों पर फुफकारता है

जिसके कभी हाथ नहीं झुलसे दो पत्थरों की चिंगारी से
वह दुनिया में बढ़ती बारूदी-हवा पर रुदाली-प्रलाप करता है

कहो कवि!
क्या तुम्हें मात्र उन दो व्यक्तियों के लिए भी आपत्ति है ;
जो इन सभी के बारे में पढ़-सुन कर
एक तो अथाह शर्मिंदा है
और दूसरा
पत्थर, नदी, आकाश, धरती और वायु के प्रेम में पड़ चुका है।

मुझे तुम्हारी आपत्ति पर खेद है,कवि!

7. मृत्यु प्रमाण पत्र  
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पिता की मृत्यु को
तीस दिनों बाद
जेठ की भरी दुपहरियों में
प्रमाण पत्रों द्वारा सत्यापित करता
जिम्मेदार लोगों को देरी के कारण बताता हुआ
पुत्र सोचता रहा…विस्मित होता रहा

“इतना दुष्कर क्यों है
यह सिद्ध करना कि
मेरे पिता अब नहीं रहे
क्या सम्बंधित अधिकारियों को दिखता नहीं
कि यह सब मैं अकेले ही कर रहा हूँ।”

8. पिता का न होना
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भाग्य में पिता का न होना
द र अ स ल
माँ का भी कम होते जाना है..

माँ..माँ नहीं रह पाती है
पिता सी बनने की कोशिशों में कुछ अलग हो जाती है !
एकाएक ;
कठोर-दंड देती हुई
अबोला-निर्णय सुनाती हुई
कभी-कभी तो स्वयं को भी अवाक करती हुई
“मैं माँ ही रही..पिता न बन सकी!”

मेरे पितृविहीन संसार में माँ का होना
स्वयं को उस कंगली दुनिया के एक सुरक्षित छोर में पाना था ;
जहाँ, मुझे बस उतनी ही ठौर हासिल थी
जितना मन पसन्द कीचड़ न मिलने पर
मैंने कभी पैरों के पंजे टिकाने भर की जगह खोजी थी

माँ का होना तो सबने देखा था
लेकिन,उसका पिता बनना
अब मुझे सुनाई देता है..अक्सर!
समझ आया है…बहुत देर से!
घुप्प रिक्तिकता भरता है..हर बार!
9. शेष मैं
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मैं लिखकर भी उतना बची रहना चाहती हूँ
जितना पत्थरों के बीच से गुजरता पानी बच जाता है ;
पत्थरों पर लगी काई पर
ताकि तैरती मछली का जब कंठ सूखने लगे
तो वह अपने घर के बाहर की हवा को चख सके
व जान सके
कि बचे रहने के लिए बेहद ज़रूरी है
जमीन,हवा व पानी को हर बार नए तरीक़े से महसूसना!
मैं लिखने के बाद मछली की भाँति
गीले पँख लपेटे बादलों को पुकारना चाहती हूँ

मैं खूब बतकहियों के बीच
तालु के पीछे कुछ शब्द छुपाना चाहती हूँ
ताकि धीरे-धीरे सीख सकूँ वह कौशल;
कि कई मौकों पर मौन कितना ज़रूरी था
या हो सकता था
अब यह भी सम्भव नही होता है न
कि हम हर बात को तत्क्षण और सम्पूर्ण ही कह सकें
मैं गूंगे की तरह नये भावार्थ खोजते हुए
हर शब्द पर उत्कंठित ज़ुबान फिराना चाहती हूँ

मैं एक रोज़ रेत-घड़ी को लुढ़का कर उतनी ही उम्र-रहित होना चाहती हूँ
जैसे मृत्यु के बाद कोई व्यक्ति शेष रह जाता है
और बटोर सकूँ वे सभी कालांश
जहाँ मुझे जीवन में सिर्फ़ एक बार ही सही
किसी पीड़ा से पूर्ण रूप से विदा होना आ गया था
मैं एक शिशु की भाँति जी भर सोकर भी
टेक मिलते ही नींदों में नितांत अकेली होना चाहती हूँ

मैं अवसान के बाद उतना ही बचे रहने की अभिलाषी हूँ
जितना डाली पर बच जाती है
हल्की निशानी…एक गिरे हुए पत्ते की!

परिचय:-

मंजुला बिष्ट
कविता और कहानी लेखन में रुचि
प्रकाशित:- हंस, नया ज्ञानोदय, पाखी, बहुमत पत्रिका, समालोचन व अन्य ब्लॉगस पर रचनाएँ प्रकाशित हैं।प्रथम-कविता संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से शीघ्र प्रकाश्य।

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