सतीश छिम्पा की कुलधराविषयक कुछ कविताएँ

कुलधरा (जैसलमेर) एक पूरी संस्कृति, समाज और सभ्यता का उजड़ जाना। जैसलमेर रियासत के राज मंत्री सालिम सिंह के अमानवीय और क्रूर व्यवहार और उसके अत्याचार की मार सहते पालीवाल ब्राह्मण अपने इन गाँवो को छोड़कर चले गए थे। आज भी उनके घरों के खंडहर उन पर हुए जुल्मों की कहानी कहते से लगते हैं।

राजस्थान के जैसलमेर शहर से सोलह किलोमीटर दूर स्थित कुलधरा बहुत समय पहले लगभग पांच सौ घरों और चौरासी गावो का पालीवाल ब्राह्मणों का इलाका था। थार में पीने का एक बूंद पानी नही मिलता मगर पालीवालों ने झीलों का निर्माण किया और वो चमत्कार से कम नहीं था। और पालीवाल ब्राह्मणों की भौगोलिक कुशलताओं के चलते जो अभी बहुत कम ही समृद्धता आई थी जिसके कारण जैसलमेर रियासत के भाटी राजा को उन्होने कर चुकाकर चौरासी गाँवों में अपना रहवास कर लिया। कुलधरा के गाँवों में सभी मकान पीले पत्थर से बने थे। और सभी के सभी मकानों में एक ही भांत की भवन निर्माण शैली का एक अद्भुत रूप आज भी दिखता है। उत्तर पश्चिम राजस्थान बरसात की दृष्टि से शून्य है। पानी की किल्लत के चलते उन्होंने खड़ीन, पलाया झीलों का निर्माण किया था।

जैसलमेर रियासत का दीवान सालिम सिंह बहुत ताकतवर और प्रभावशाली क्रूर आदमी था। इसकी बर्बरता के किस्से आज भी सुनने को मिल जाते हैं। कुलधरा के पालीवालों के चौरासी गाँवों के साझा मुखिया की लड़की पर उसकी बुरी नज़र थी। उसने मुखिया की लड़की से शादी करने की इच्छा मुखिया को बताई। उसके शादी के इस प्रस्ताव को सभी चौरासी गाँवों के लोगों ने मानने से इनकार कर दिया। राजसत्ता की ताकत के नशे में सालिम सिंह दीवान ने पालीवालों पर बहुत भारी भरकम अनुचित कर लगाए। उन्हें तंग करना शुरू किया। यह शादी उसके मिथ्या घमंड को पुष्ट करने वाला सवाल बन गई थी।

लेकिन अतीत के अपने अनुभवों और कुछ सीधे- सादा होने की वजह से पालीवाल ब्राह्मणों ने एक ही रात में उस जालिम रियासत और अपने गांवों की भूमि छोड़ दी। रातो-रात कुलधरा को खाली करके चले गए। वह कोई धुर से ही मनहूस रात रही होगी। थार का उजाड़ बियाबान भी फूट- फूटकर रोया। आसमान फटने को तैयार हुआ होगा क्योंकि चौरासी गाँवों ने असंख्य पीड़ाओं और संताप को ढोते हुए एक साथ पलायन किया।

कुलधरा :- कुछ कविताएं

(१)

निराशा और पसरा हुआ शोक संतप्त सन्नाटा
असंख्य आंखों की पीड़ाओं के साथ
उपस्थित हुई है करुणा

सदियों का संताप
जो आसमान की छाती में दबा था
फट पड़ा

हरियल उम्मीदों के होते हुए भी
सम अब पस्त है।

(सम मरुस्थल थार का ही एक हिस्सा है। यह जैसलमेर जिले में स्थित है।)

(२)

अपनी धरती के बिछोह में
तड़फता आदमी
कुलधरा का हो या फिलिस्तीन का
दुनिया भर की पीड़ाओं को ढोता है
जीवन भर
वो जो धरती से निष्काषित कर दिया जाता है
सबसे ज्यादा संतप्त है।

(३)

कितने ही चूल्हे ठंडे पड़े होंगे एक साथ
कितनी ही आंखों में उतर आया होगा अंधेरा
लड़कियों की चूड़ियों की खनखनाहट
लड़कों की हंसी एक साथ थम गई होंगी

आदमी
औरत
सब निकल पड़े होंगे मुंह अंधेरे
सालिम सिंह के आने से पहले

(४)

मैं बिल्कुल बीच में खड़ा हूँ इस गांव के
पत्थरों से बने हुए घर
दीवारें, छतें, आंगन और चूल्हे
उम्मीद और सपने
हंसी ठट्ठा
सब मातम में बदल गए होंगे
उस रात जो निर्णायक थी
बढ़ते आते अंधेरे और शर्मिंदा हुई धरती
के बीच की दरार को
पलायन की पीड़ाओं से भरने के लिए

(५)

दिन के समय
यहां कुछ भी नहीं मिलता
ना आदमी, ना आदमी जैसा कुछ
पत्थर, मिट्टी और चूना
और पत्थर और मिट्टी और चूने से बने बहुत सुंदर
मगर शापित घरों में भी
नहीं मिलता कुछ भी
सिवाए घुग्घियों के
रात में जबकि आती है घने अंधेरे के साथ
बरसों से पीड़ित अभागी स्मृतियाँ

डोलती है
कभी सूखे कुए की गिर्द
कभी दरवाज़ों तक
कभी उस दिशा में
जहां जैसलमेर दुर्ग है
और जिसकी छांव में हैं सालिम सिंह की हवेली

स्मृतियां खुद को पीड़ाओं से
कभी मुक्त नहीं कर पाती
निर्मम अतीत से निकल कर
आता है हिस्से में संताप ही
क्योंकि शापित है स्मृतियां

(६.)

बरसों बरस रोता रहा होगा थार
अक्सर सुनते हैं
सुबकना
किसी रेत हो चुके आदमी का

(७.)

आई होगी किसी के घर
कोई नवब्याहता
कुहनियों तक पहने लाख के चूड़े
या दाहिनी आंख के बिल्कुल पास
गोदे गए मोर पंख
या ठोडी के एक तरफ
बनाए गए तिल
चुड़ला या कर्णफूल
हाथ की मेहंदी और कमरबंद
अभी अपने होने की सार्थकता जान भी नहीं पाए होंगे
कि बुलावा आ गया होगा मनहूस अंधेरे में
बियाबान- शापित थार में युगों युगों तक भटकते रहने का.

उस रात धरती पीड़ाओं से थर्रा उठी थी
कहते हैं जालौर में फटा था बादल

(८)

पीले पत्थरों में दबी है चीखें
गारे में लगी स्मृतियां
दरख्तों और छितराई झाड़ियों में
अटकी होंगी किसी याद की कोई एक किरच अबोल रेत

समय अपनी समूची मनहूसियत को त्याग कर
पश्चाताप में हैं
और निर्मम थार
विस्मित है
एक पूरी सभ्यता का पलायन!!!!

(९)

सदियों तक गाया जाएगा
पीड़ाओं का यह गीत
सदियों तक सुनेगी धरती
असंख्य माँओं की मौन चीत्कार

सीने में नासूर बने ज़ख्म को
यूं ही ढोता रहेगा शापित समय

कुलधरा
अब कभी आबाद नहीं होगी

(१०)

आंखों का भरना हो या भीतर का रीत जाना
फर्क नहीं है इसमें
अपनी माटी से उखड़ने का संताप कुलधरा के पालीवाल ब्राह्मणों का हो या फिलिस्तीन का
सीरिया या रोहिंग्या या कांगड़ाओं का

विस्थापन के दुख का हिमालय
अपनी पीठ पर लादे डोलता है आदमी
जो निकाल दिया गया है अपनी धरती से

उसकी आँखों का पानी कुलधरा नहीं है
फिलिस्तीन नही है
कश्मीर और सीरिया भी नहीं है
वो महज़ आदमी के मर जाने पर
किरच भर बची मनुष्य होने की उम्मीद का पिघलना है
वो जल्द ही पिघल जाएगी।

परिचय :

सतीश छिम्पा हिंदी राजस्थानी कविता में महत्वपूर्ण नाम है। वे राजस्थान के सूरतगढ़ कस्बे से संबंध रखते हैं। उनकी कहानी कविता और संपादन की कुछ किताब आ चुकी हैं। वे राजस्थानी की पत्रिका किरसा के संपादक भी हैं।

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