आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जिन्होंने हिंदी को समर्पित कर दिया जीवन, खड़ी बोली में लेखन के थे विद्वान

साहित्य लेखन में समय-समय पर कई ऐसे नाम हुए जिनका काम इतिहास में अमर है, इन नामों आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी एक अलग पहचान रखते हैं जिन्होंने अपना अधिकांश लेखन खड़ी बोली हिंदी में ही किया। द्विवेदी जी आधुनिक युग के निबंधकार और उत्कृष्ट समालोचक के नाम से भी पहचाने गए।

आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त 1907 को बलिया उत्तरप्रदेश में हुआ था। इनके बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था। द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल में हुई।

काशी विश्वविद्यालय में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद शास्त्री व ज्योतिष परीक्षा में सफलता हासिल की। इसके बाद वह हिंदी अध्ययन के लिए शांति निकेतन चले गए और कई सालों तक वहां हिंदी विभाग में काम करते रहे। शांति–निकेतन में रवींद्रनाथ ठाकुर के सानिध्य में साहित्य के गुर सीखे व अध्ययन किया।

उन्होंने कई कृतियां रची जिनमें से बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा प्रमुख है। वे आलोचक होने के साथ निबंधकार थे। उन्होंने सैकड़ों की संख्या में भारतीय समाज, संस्कृति व इतिहास के कई विषयों पर निबन्ध लेखन किया।

वह निबन्ध निरीक्षण की गहनता से परिपूर्ण थे। गद्य साहित्य में उनका योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया। द्विवेदी जी हिंदी साहित्य के प्रकांड विद्वान रामचन्द्र शुक्ल के समक्ष खड़े होते है हालांकि साहित्य के इतिहास के संदर्भ में दोनों के मत मुख्तलिफ जरूर है।

खड़ी बोली हिंदी में किया लेखन

द्विवेदी जी अपना लेखन खड़ी बोली हिंदी में ही किया। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार ही भाषा का प्रयोग किया। द्विवेदी की लेखन शैली अत्यंत रोचक है। अपनी लेखनी में हिंदी संस्कृत तत्सम व विभिन्न भाषाओं के शब्दों का भरपूर उपयोग किया हैरत होती है जब वो चांद व सूरज के लिए निशानाथ व मारिचमाली शब्दों का प्रयोग करते है।

उन्होंने विभिन्न भाषाओं के शब्द भी प्रयोग किए। पढ़ने पर यह अलग नहीं स्वभाविक लेखन लगता है। उनके लेखन का मुख्य गुण है विस्तारपूर्वक समझाना अंत तक पाठक संतुष्ट हो जाता है कि लेखक क्या कहना चाहता है।

हिंदी आलोचना व निबन्धकारों में द्विवेदी जी प्रथम पंक्ति में आकर बैठते है। द्विवेदी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था। वे हिंदी अंग्रेज़ी, संस्कृत और बंगला भाषाओं के विद्वान थे। उन्होंने शांति निकेतन के बाद काशी विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफेसर के रूप में सेवाएं दी। 1960 में पंजाब विश्वविद्यालय में भी प्रोफेसर के रूप में काम किया। हिंदी क्षेत्र में उनके असीम योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता।

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