हिंदुस्तान के इस गांव में युवा नहीं करते नौकरी की तैयारी, गांव के इस बिजनेस से है मालामाल

हमनें स्कूल के दिनों में किताबों में अक्सर पढ़ा है कि भारत एक ग्रामीण प्रधान देश है जहां अधिकांश आबादी गांवों में रहती है। भारत के सुदूर इलाकों में फैले ग्रामीण परिवेश में अनेकों ऐसी कहानियां और किरदार है जिनके बारे में सुनकर हैरानी होती है। आज हम आपको एक ऐसे ही गांव की कहानी बताएंगे जिसका नाम सुनकर लोग अचरज में पड़ जाते हैं।

जी हां, उत्तराखंड के मसूरी से 20 किलोमीटर दूर टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड में स्थित रौतू की बेली नामक गांव “पनीर वाला गांव” के नाम से मशहूर है। 1500 लोगों की आबादी वाले इस गांव में सभी लोग पनीर बनाकर बेचने का काम करते हैं।

1980 में हुई पनीर बेचने की शुरुआत

बताया जाता है कि 1980 में पूर्व ब्लाक प्रमुख कंवर सिंह पंवार ने पनीर बनाकर बेचना शुरू किया। उस दौरान पनीर 5 रूपये प्रति किलो के हिसाब बिका करता था। कंवर सिंह ने मसूरी के एक स्कूल में पनीर भेजना शुरू किया। इसके बाद आधुनिकता के साथ पनीर व्यवसाय फलने लगा। कुंवर सिंह बताते हैं कि उस समय हम एक दिन में करीब 40 किलो पनीर बनाते थे।

2003 के बाद से पनीर व्यापार ने पकड़ी तेजी

कुंवर सिंह बताते हैं कि 2003 के बाद देहरादून उत्तरकाशी में लोगों का आवागमन बढ़ गया जिसके बाद सरकार ने भी यहां के इलाकों में सड़कें बनाकर व्यापार को बढ़ाया। साल 2003 के बाद पनीर के उत्पादन ने तेजी पकड़़ी और गांव के हर घर में लोग पनीर बनाकर बेचने लगे।

गांव से नहीं हुआ पलायन

वहीं इस गांव के बारे में एक खास बात यह है कि यहां के युवा नौकरी की तलाश में बाहर नहीं जाते हैं। गांव के लोग कहते हैं कि खेती और पनीर का काम करने में ही उनका दिन बीत जाता है और ठीक-ठाक जीवन व्यतीत हो जाता है।

ऐसा दावा किया जाता है कि हिंदुस्तान में यही एक ऐसा गांव है जहां से सबसे कम लोगों ने पलायन किया है

पनीर बनाने में होती है कई तरह की दिक्कतें

गांव के स्थानीय लोग बताते हैं कि वह महीने में केवल 6000-7000 रुपये कमा पाते हैं। वह कहते हैं कि पनीर बनाना भी आसान नहीं है, इसके लिए भैंस गाय को साल भर तक पालना पड़ता है जिसके बाद उनके अच्छे से दूध देना शुरू करने के बाद पनीर बनाया जाता है। वहीं कुछ लोग बताते हैं कि भैंस, गाय का चारा मिलना भी कभी-कभी बेहद मुश्किल हो जाता है।

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